Tuesday 4 January 2011

सूखा सूखा कितना सूखा

कहानी
वह अदना सा अंशकालिक पत्रकार था। एक बड़े अख़बार का छोटा सा स्ट्रिंगर। उसका ख़बरों की क़ीमत शब्दों के विस्तार पर तय होती थी, ख़बरों की गहराई और महत्त्व पर नहीं। जिस ख़बर के जुगाड़ में कई बार उसका पूरा दिन लग जाता उसकी लम्बाई कई बार तीन-चार कालम सेंटीमीटर होती।

ऐसा होने पर वह अपने आपको ठगा सा महसूस करता। जिन दिनों अख़बार के विज्ञापन की दरें 215 रुपये प्रति कालम सेंटीमीटर हुआ करती थी उसके छपे समाचार पर 2 रुपये 15 पैसे प्रति कालम सेंटीमीटर मिलता था अर्थात सौंवा हिस्सा। पांच बरस बीत गये विज्ञापन की दरें बदलीं मगर नहीं बदला तो उसका मानदेय। इसके अलावा एक सुनिश्चित मानदेय रिटेनरशिप के नाम पर तीन सौ रुपये प्रतिमाह मिलता था। यह अनायास नहीं था कि स्ट्रिंगर ने स्फीति को अपनी पत्रकारिता का गुण बना लिया। ख़बर में अनावश्यक फैलाव और दुहराव न होता तो उसकी दैनिक कमाई एक रिक्शावाले के बराबर भी न हो।

और उधर डेस्क की ड्यूटी इस काम के लिए लगी होती थी कि स्ट्रिंगरों की ख़बरों की स्फीति और अनावश्यक हिस्सों को काटा-छांटा जाये। काट-छांट करने वाले मज़े में थे। कम्पनी की तरफ़ से उन्हें तमाम सुविधाएं थीं। वे एसी युक्त कार्यालय में बैठे-बैठे स्ट्रिंगरों की मूर्खताओं की चर्चा कर फूले न समाते और अपने को विद्वान मानने का वहम पाले रहते। एक ही ख़बर पर दोहरी मेहनत होती थी। सब कुछ अरसे से ठीक-ठाक चल रहा था किन्तु एक दिन स्ट्रिंगर की पेशागत ज़िन्दगी में उथल-पुथल मच गयी।

हुआ यूं कि उस दिन उसके पास ख़बरों का खासा टोटा था और उसने जिले के कुछ हिस्सों में सूखे की एक खबर गढ़ दी। यूं भी बारिश के दिनों में कई दिन से बारिश नहीं हुई थी। उसने अनुमान लगाया था कि यह हाल रहा तो सूखा पड़ सकता है। उसने ख़बर बहुत हल्के तौर पर लिखी थी उसे क्या पता था कि डेस्क उसे खासा तूल दे देगा। डेस्क पर एक अति उत्साही जीव आये हुए थे। स्ट्रिंगर कोलकाता के एक दूर-दराज़ जिले का था जो जिला मुख्यालय से भी काफी दूर एक क़स्बे में रहता था जहां से वह अपनी खबरें फ़ैक्स से भेजता था।

फ़ैक्स करने के लिए उसे तीन किलोमीटर दूर बाज़ार में आना पड़ता था। सूखे की ख़बर को फ़ैक्स तो उसने किया था किन्तु दूसरे दिन वह ख़बर लगी नहीं। अगले दिन वह अन्य ख़बरें फ़ैक्स करने गया तो वहीं से फ़ोन कर सूखे की स्टोरी के सम्बंध में डेस्क से पूछा तो कहा गया-‘तुम लोगों को क्या पता कि ख़बर किसे कहते हैं और कैसे बनती है? तुम तो बस वह करो, जो कहा जा रहा है। यह बहुत बड़ी ख़बर है जिसे तुमने बहुत मामूली ढंग से लिखी है।’

स्ट्रिंगर किन्तु-परन्तु करता रह गया और दूसरी ओर से फ़ोन काट दिया गया। अगले दिन उसने वही किया जो कहा गया था। सरकारी महकमे से जिले में सूखे से सम्बंधित पिछले रिकार्ड जुटाये और भेज दिया। अगले दिन सूखे को लेकर जो समाचार छपा उससे वह खुद हैरत में पड़ गया और उसका कलेजा कांप गया। खबर पहले पेज़ पर थी और कहीं इंटरनेट आदि से मैनेज किया गया फ़ोटो था दरकी हुई ज़मीन का। ख़बर की विषयवस्तु के साथ खिलवाड़ किया गया था और जो सूखे की आशंका उसने व्यक्त की थी उसे डेस्क ने बदलकर सूखा पड़ा कर दिया था। उसे लगा कि अब तो उसकी स्ट्रिंगरशिप गयी। रोज़गार का यह रास्ता भी बन्द। वह आशंका से बुरी तरह त्रस्त हो गया।

कोलकाता के दूसरे अखबारों में सूखे की ख़बर सिरे से नदारत। सिर्फ़ एक अख़बार में ख़बर थी। उसे एक्सक्लूसिव माना गया और किन्तु बाक़ी अख़बारों से संवाददाता और फ़ोटोग्राफ़र भेजे गये सूखे के कवरेज के लिए। चूंकि वह सुदूर जिला था अधिकतर अख़बारों में स्टाफ़ रिपोर्टर नियुक्त नहीं थे इसीलिए स्टाफ़ रिपोर्टर भेजे गये थे। जिले में कुछ दिनों तक सूखे के
कवरेज के लिए।

पत्रकारों ने एक-दूसरे से सम्पर्क किया और एक साथ एक ही ट्रेन से सूखाग्रस्त जिले में पहुंचे। इलेक्ट्रानिक मीडिया भी साथ था। रास्ते में ही तय हो गया था कि क्या करना है। जिस स्ट्रिंगर ने यह ख़बर सबसे पहले ब्रोक की है उससे सम्पर्क साधना है। उस अख़बार का फ़ोटोग्राफ़र इस ट्रेन से जा रहा था, जिसे वहां पहुंचते ही स्ट्रिंगर स्टेशन पर रिसीव करने वाला था। बाक़ी पत्रकार भी उसी के भरोसे थे कि वह प्रभावित इलाके का बासिन्दा है इसलिए स्थिति से पूरी तरह वाक़िफ होगा और उन सबकी मदद करेगा।

स्टेशन के पास ही के होटल में सारे पत्रकार ठहरने वाले थे जहां से वे स्टोरी कवर करके फ़ोन और ईमेल व अन्य साधनों से भेजने वाले थे। इतने सारे रिपोर्टर-फोटोग्राफ़र जब स्टेशन पर एक साथ उतरे कोस्ट्रिंगर के पैरों तले ज़मीन खिसक गयी। वह मन ही मन भगवान को याद करने लगा जबकि वह विचारधारा से किसी हद तक मार्क्सवादी था। होटल में जब सब फ्रेश हो लिए और नाश्ते-पानी के बाद उसके साथ कूच करने के लिए तैयार हुए तो उन्हें बताया गया कि यह जिला अत्यंत पिछड़ा हुआ है और ज़्यादातर गांवों में सड़कें नहीं पहुंची हैं सो उन्हें पैदल ही चलना होगा।

स्ट्रिंगर बेमतलब उन्हें खेतों और पतली पगडंडियों पर देर तक चलाता रहा फिर एक बड़े से तालाब के पास ले गया जो अरसे से सूखा पड़ा था। उसने बताया –‘यह तालाब पानी से लबालब भरा रहता था जो अब सूख गया है।’ उसने वह परती ज़मीनें दिखायी जिस पर कभी खेती हुई ही न थी और दरारें पड़ी हुई थीं और कहा-‘इसमें फसलें लहलहाती हैं जो अब सूखे की वज़ह से बेहाल हैं।’

शहरी पत्रकारों को ग्राम्य जीवन की न तो पूरी जानकारी थी और ना ही जानकारी हासिल करने की ललक और ना ही कोई दूसरा चारा। वह दो-एक ऐसे नलकूपों तक ले गया जो सरकारी खानापूरी के लिए लगाये तो गये थे लेकिन जिनमें लगने के बाद भी कभी पानी नहीं आया था। एक सूखा कुंआ भी उसने दिखाया जो बरसों से उसी अवस्था में था किन्तु उसके बारे में जानकारी दी कि वह इस सूखे के कारण ही इस अवस्था में है। उसकी बतायी गयी सूचनाएं मीडिया के लोग दर्ज़ करते रहे। तस्वीरें उतारी गयीं।

टीवी वालों ने भी स्थलों की बाइट ली। उन्हें एक पेड़ की छांह में बिठाकर स्ट्रिंगर पास ही के गांव में गया और लोगों को समझा-बुझाकर वहां ले आया जो सूखे की गवाही देने को तैयार थे। गांव वालों को उसने समझाया था कि यदि वे सूखे की गवाही देंगे तो उन्हें सरकार से पैसे मिलेंगे। लोग खुशी-खुशी गढ़ा हुआ झूठ बोलने को तैयार हो गये। दो-तीन युवक साइकिल से पड़ोस के गांव भी दौड़ा दिये गये जो गढ़े झूठ का साथ देने के लिए तैयार किये जाने के मक़सद से भेजे गये। फिर क्या था सूखे के पुराने दिनों को गांव वाले याद करते और इस सूखे के बारे में भी वैसा ही बयान देते। ख़बरें बनने लगीं। कैमरों के फ़्लैश चमकने लगे। टीवी वाले अलग-अलग लोगों के बयान लेते रहे।

अगले दिन सारे अख़बारों में सूखा और उसकी तस्वीरें छा गयीं। टीवी पर भी सूखा दिखा। मीडिया ने दूसरे दिन अपनी कलाकारी दिखायी लोगों से कहा गया कि वे वर्षा के लिए पूजा-अर्चना करें, नमाज़ पढ़ें ताकि उसका कवरेज शानदार दिखायी दे। गांव वालों ने ऐसा ही किया। मीडिया के वहां होने की ख़बर पाकर स्थानीय विधायक, सांसद और कलेक्टर सहित तमाम अधिकारी वहां पहुंच गये। उन सबके चेहरे पर रौनक थी। उनके मन में पिछले सूखे से हुई कमाई की याद ताज़ा हो आयी थी। और इस बार तो सूखा छप्पर फाड़ कर आया था। बैठे बिठाये। सरकारी राहत का ज़्यातातर माल ज़ेब में आने की संभावना बन रही थी। उन्हें तो पता ही न था कि कब सूखे ने यूं उनके यहां दस्तक़ दी थी। अख़बारों के रास्ते।

सब मीडिया के सामने सूखे की भयावहता का बढ़-चढ़ कर वर्णन कर रहे थे और सरकार से खासी मदद मांग रहे थे। टीवी पर ही उन्होंने सुना कि सम्बंधित मंत्री ने पहले तो मीडिया की ख़बरों के आधार पर प्रधानमंत्री को तत्काल पत्र लिखा था और सूखा से निपटने और राहत के लिए करोड़ों रुपयों की पुरज़ोर मांग कर दी थी। वे ज़ल्द ही इलाके के दौरे पर आने वाले थे। मुख्यमंत्री राहत कोष से भी राहत राशि की घोषणा कर दी गयी थी।

प्रधानमंत्री ने भी आश्वासन दिया था। तीन दिन से मीडिया में सूखे की ख़बरों का ज़बर्दस्त कवरेज रहा। खेत का दरकी हुई ज़मीन, सूखे तालाब, नलों की सूखी हुई टोंटियां, चारे के अभाव में दुबले हुए मवेशी न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में दिखायी दे रही थीं। सूखे के प्रचार दौड़ में मीडिया एक-दूसरे को पछाड़ने में लगे थे और यह स्ट्रिंगर के होश उड़ाये हुए था। उसका दिल रह-रह कर डूबता-उतराता रहा। यह सब उसी की ग़ल्तियों का नतीज़ा है। उसका फ़रेब सामने आया तो क्या होगा? क्या पता उसे लम्बी सज़ा ही न हो जाये? तीस-चालीस रुपये की हवाई स्टोरी उसे कितनी महंगी पड़ेगी वह सोच नहीं सकता था। और अब सच स्वीकार करने का कोई रास्ता न बचा था।

यह सब कुछ चल रहा था कि अचानक सब कुछ बदल गया एकाएक तेज़ बारिश होने लगी। अधिकारियों के चेहरे उतर गये। सांसद और विधायक की गाड़ियां एकाएक वहां से नदारत हो गयीं लेकिन जो निराश नहीं था वह था स्ट्रिंगर। चलो सूखे से पीछा छूटा। उसने चैन की सांस ली। खुश था मीडिया भी। स्टोरी में ट्विस्ट आ गया था।

लोगों से मीडियाकर्मियों ने गुजारिश की कि वे बारिश में नाचें। लोगों की बारिश में नाचती तस्वीरें और टीवी फुटेज लिये गये। यह सूखे से निज़ात पाये लोगों का उल्लास था जो मीडिया की नज़रों से दुनिया ने देखा। इसी बीच स्ट्रिंगर के आफ़िस से मोबाइल पर फ़ोन आया। फ़ोन पर स्ट्रिंगर को सूखे के कवरेज में पहल के लिए बधाई दी गयी और बताया गया कि पुरस्कार स्वरूप उसका रिटेनरशिप दो सौ रुपये प्रतिमाह तत्काल प्रभाव से बढ़ा दिया गया है।

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