Friday 2 July 2010

कहानियों का कलाइडोस्कोप


साभारःद संडे इंडियन, 11 जुलाई 2010

अभिज्ञात की कहानियों का यह संग्रह उनकी कुल दो दर्जन प्रकाशित अप्रकाशित कहानियां समेटे हुए है. इनमें किंचित लम्बी अधिकतर छोटी तथा कुछ लघु कथाएं शामिल हैं.अभिज्ञात की इन कहानियों की खूबी यह है कि इनकी किस्सागोई पाठकों को कहानी के साथ लिए चलती है. पढ़ने वाला कहानी का महज पाठक न होकर उसका एक हिस्सा बन जाता है. उल्लेखनीय बात यह है कि अभिज्ञात की कहानियों का सिर्फ कथ्य और उसके लिहाज से उसकी भाषा ही नहीं बदलती पूरा का पूरा शिल्प और शैली भी बदल जाती है. इन दो दर्जन कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है कि यह किताब जैसे कहानियों का पहुदर्शी या एक कैलाइडोस्कोप हो या फिर अलग-अलग रंग-ढंग की कथा शैलियों से बना एक खूबसूरत गुलदस्ता.
अभिज्ञात की कहानियों का कथ्य तथा बुनावट की विविधता को देखकर लगता है कि उनका अनुभव फलक काफी विस्तृत है.लेखक पेशे से पत्रकार हैं, इसलिए यह बात आसानी से समझी जा सकती है. आधुनिकता के नाम पर बेवजह अमूर्तता या अपना दर्शन बघारने की बजाए अभिज्ञात ने कहानियों को धरातल पर ही रखा. सहज, सुबोध और तरल. इसी के चलते अभिज्ञात की कहानियां समाज के सरोकारों, संवेदनाओं, समस्याओं, रिश्ते नातों की जटिलताओं को भी बिना किसी तरह के शब्दाडंबर फैलाए, उपदेश पिलाये बेहद साफगोई के साथ उकेरती हैं. वह चाहे व्यवस्थागत खामियों की बात कर रहे हों या समाजिक विद्रूपता की, बिना अतिरंजकता का सहारा लिए वे चौंकाते हैं और उस पर ध्यान आकर्षित कर के लिए मजबूर करते हैं. उनकी यह खूबी उन्हें बड़े रचनाकार की पांत की तरफ ले जाती है.
कहानी संग्रह में शामिल सर्पदंश, शिनाख्त नहीं जैसी कुछ कहानियां साधारण हैं लेकिन एक हिट भोजपुरी फिल्म की स्टोरी, क्रेजी फैंटेसी की दुनिया या फूलबागान का सपना जैसी कहानियां अभिज्ञात के कथा कौशल की बेहतर परिचायक हैं. कहानी विधा में रुचि रखने वाले पाठकों को यह पुस्तक निराश नहीं करेगी.

Monday 14 June 2010

अभिज्ञात की दुनिया में सच के 25 रूप

समीक्षा
सुधीर राघव
( हिन्दुस्तान, चंडीगढ़ 13 जून 2010 को प्रकाशित)
अभिज्ञात अपनी बसाई दुनिया लेकर फिर पाठकों के सामने हाजिर हैं। यह दुनिया है उनके लिए जो सपने देखना पसंद करते हैं, मगर हर कहानी पाठक को सपनों के आकाश से हकीकत के उस धरातल पर ले आती है, जो कढ़ाई में खदकते हलवे की तरह बुलबुले छोड़ रहा है। हर बुलबुला जिंदगी के एक सच से पहचान करवाता है और अपना स्वाद छोड़ जाता है। सच के इतने रूप लेखक अपनी जिंदगी के चारों ओर से ही तलाश कर लाया है। अभिज्ञात के अंदर छुपे पत्रकार की पारखी नजर और संवेदनशील कवि इस सच को शब्दों की सजीवनी से साक्षात करता है। मिस्र की संरक्षित ममियां भले ही अपने युग को फिर कभी नहीं जिएंगी पर अभिज्ञात के पात्र लौट-लौटकर आते हैं और सीधे पाठक के जेहन में उतर जाते हैं।

इस संग्रह की अधिकतर कहानियां कादम्बिनी, हंस, वागर्थ, वर्तमान साहित्य और वामा जैसी प्रतिष्ठित साहित्यक पत्रकाओं में छप चुकी हैं। पहली ही कहानी -कॉमरेड और चूहे- हमारे चिकित्सा शिक्षण संस्थानों के हालात बयां करती है कि किस तरह एक आदर्श को कुतरने के लिए यहां के चतुर्थश्रेणी कर्मचारी ही काफी हैं। स्वार्थ अभिज्ञात की लेखनी से नए अर्थ लेकर निकलता है, कहानी -औलाद- में। एयरहोस्टेस मां अपने नाजायज नवजात को न बचाने के लिए डॉक्टर से कहती है, मगर डॉक्टर उसे इसलिए बचाना चाहता है, क्योंकि यह उसका पहला ही केस है। लघुकथा -बंटवारे-यह बता कर चौंकाती है कि जब कोई घर बंटता है तो सबसे ज्यादा खुश भिखारी होते हैं कि अब उन्हें एक की जगह चार घर से भीख मिलेगी। -तीसरी बीवी-कोलकात्ता में बसे बांग्लादेशियों की बदतर जिंदगी की झलक दिखाती है। आज स्त्री भले अपनी मर्जी से प्रेम विवाह करे मगर पुरुष उसके आर्थिक और यौन शोषण पुराने हथकंडों अपना कर ही करता है। यहां कोई बदलाव नहीं है। औरत की आजादी किसी को बर्दाश्त नहीं। भले ही कुलटा कहानी में किसी पात्र का नाम नहीं है मगर यह कुलटा की गाली से भयभीत सभी स्त्रियं के साझा डर का दर्शाती है। पति-पत्नी के बीच नौकझौंक की एक बहुत ही रोचक कहानी है फिर मुठभेड़। यह बिल्कुल नए अंदाज में हैं, शादी की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर भी यह जोड़ा दिनभर यह वादा करने के बाद कि आज नहीं लड़ेंगे रात को जरा सी बात पर आपस में मारपीट करके ही सोता है। इस कहानी संग्रह में कुल 25 कहानियां हैं और सब सच के इतने ही रूप दिखाती हैं।

इस तरह कहानियां मर्म को बेधती हैं, हूक पैदा करती हैं तो कभी ढांढस बंधाती हैं। इनमें अनुभव, संवेदना और मर्म साथ-साथ चलते हैं। लेखक किसी एक अंदाज में बंधी किस्सागोई नहीं करता, इसलिए पाठक दूर तक उसके साथ चलता है और ऊबता भी नहीं है।

कहानी संग्रह-तीसरी बीवी
प्रकाशक : शिल्पायन
मूल्य : 150 रुपये
आवरण चित्र : डॉ. लाल रत्नाकर

Sunday 6 June 2010

एक बेचैन करने वाली दुनिया से गुज़रते हुए

पुस्तक समीक्षा
-उमेश कुमार राय
एक समय था जब कहानियां आलोचना के आधार पर लिखी जाती थी। कहानियों की भाषा, विषयवस्तु, भूमिका और उनकी इति श्री आलोचना को ध्यान में रखकर ही की जाती थी। लेकिन इधर कुछ समय से इस परंपरा में काफी बदलाव आया है। अब के रचनाकार आलोचनाओं के मानदंडों के आधार कहानियां नहीं लिखते। वे कहानियों में नये प्रयोग कर रहे हैं जिस कारण अब कहानियों के आधार पर आलोचना लिखने की जरूरत महसूस होने लगी है। खास तौर पर अभिज्ञात जैसे कथाकारों की कहानियों की व्याख्या के लिए कहानी आलोचना के मानकों को अधिकाधिक औज़ारों से लैस होना होगा। यथार्थ, फैंटेसी और कल्पना के कलात्मक रचाव के साथ समकालीन जटिलताओं को उन्होंने जिस तरीके से अपनी कहानियों उकेरा है, वह पाठक को भले लगभग सम्मोहित करता हो पर उसकी व्याख्या कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। पत्र-पत्रिकाओं में अपनी दर्जन भर महत्वपूर्ण कहानियों से भी साहित्य जगत का ध्यान अपनी ओर बरबस आकृष्ट करने वाले अभिज्ञात का पहला कहानी संग्रह हिन्दी कहानी की एक महत्वपूर्ण घटना है क्योंकि इसके बाद कहानी का संसार वह नहीं रह गया है जो पहले था। अपनी कहानियों से कहानी का स्वरूप बहुत बारीकी से उन्होंने बदला है। उनके कहानी संग्रह 'तीसरी बीवी' की कहानियां उदय प्रकाश की कहानियों के उदय के बाद एक नया प्रस्थान हैं। संग्रह की कहानियों की शुरुआत दिलचस्प तरीके से होती है और वह अन्त तक पाठक पर अपनी गिरफ्त बनाये रखने में कामयाब हैं। इन कहानियों की एक विशेषता यह है कि इनके नायक शेक्सपीयर के पात्रों की तरह आत्मग्लानि से भरकर आत्महत्या की राह नहीं चुनते बल्कि वे समय की मांग समझकर उन परिस्थितियों से समझौता कर लेते हैं। यह समझौता पाठक को देर तक झकझोरता है और स्थितियों को बदलने में उनकी पहल की भी मांग करता दिखायी देती है। कहानियों में घटनाएं परिस्थितियों से संचालित हैं इसलिए यह कहानियां चुपचाप व्यवस्था की खामियों की तरफ पाठक का ध्यान खींचती हैं और उनकी विसंगतियों को उजागर करती हैं। कहानियों के पात्र यथार्थ से टकराते हैं टूटते हैं, पर पलायन नहीं करते। उनकी जीजिविषा ही उनकी सम्पदा बनती है। तभी तो अपनी
बेटी का भरण पोषण कर पाने में असमर्थ 'तीसरी बीवी' कहानी का नूर अपनी बेटी को हबीब की तीसरी बीवी महज इसलिए बना देता है क्योंकि सर्द रात में उसके पास बिस्तर नहीं है। जश्न कहानी का करमु कौवे का मांस खाने से भी नहीं हिचकता। संग्रह की सभी कहानियों के पात्र और
नायक जीवन से जुड़े हुए हैं। कई कहानियों के नायक ड्राइवर, मिल मजदूर, झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने वाले लोग हैं जिन्हें हमलोग हर रोज आसपास देखते और रूबरू होते हैं लेकिन उनकी वस्तुस्थिति से हम अपरिचित है।
संग्रह की पहली कहानी कामरेड और चूहे हंस में प्रकाशित होने के बाद चर्चा में आयी थी। कहानी के माध्यम से कम्युनिस्ट शासित राज्यों में सर्वहारा वर्ग की दारुण स्थिति को दर्शाया गया है और साथ ही इसके माध्यम से यह बताने की कोशिश की गयी है कि यदि गरीब को उनका उचित मेहनताना ना मिले तो किस तरह वे संवेदन शून्य हो जाते हैं और शव को भी टुकड़ों टुकड़ों में बेच देते हैं। इसमें व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी दिखाया गया है जिसके चलते अच्छी नीयत से काम करने वालों को पछतावे के सिवा कुछ और हाथ नहीं लगता। लोगों की कुर्बानियां व्यर्थ चली जाती हैं।
संग्रह की कहानी जश्न यूं तो है बहुत छोटी बमुश्किल 10-12 पंक्तियों की लेकिन सबसे दमदार। कहानी की शुरुआत मिल मजदूर करमु के पगार मिलने से होती है। पगार मिलने से करमु काफी खुश है और काफी दिनों बाद मछली खरीदकर लाया है। यह देखकर उसके बच्चे और पत्नी भी बल्ली उछल रहे हैं क्योंकि काफी दिनों बाद उन लोगों को मछली खाने को मिलेगी। मछली धोने के लिए वह नाले के पास जाता है ताकि उसके पड़ोसी देखकर यह समझ लें कि वह भी मछली खा सकता है। वह नाले के पास मछली धो रहा होता है कि एक कौवा थाली में चोंच मार
देता है जिस कारण मछलियों के टुकड़े नाले में बह जाते हैं। मछलियों का नाली में बह जाने से वह इतना गुस्सा हो जाता है कि चप्पल उठाकर कौवे को दे मारता है और कौवा वहीं फर्श पर गिर पर प्राण त्याग देता है। इसके बाद वह मरे हुए कौवे घर ले जाता है और उसी को पकाकर खा जाता है। कौवे का मांस खाते वक्त करमु को घृणा नहीं बल्कि तृप्ति होती है। कहानी में कौवा उन मिल मालिकों का प्रतिनिधित्व कर रहा है जो मजदूरों का हक डकार जाते हैं। वहीं, करमु के रूप में देश का सर्वहारा वर्ग खड़ा है। कहानी के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गयी है कि यदि मजदूरों को उनके हक से इसी तरह बेदखल किया जाता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब देश के करमु इन धन्ना सेठों को कौवों जैसी स्थिति कर देंगे।
क्रेजी फैंटेसी की दुनिया संग्रह की एक कहानी उल्लेखनीय कहानी है। इसके बारे में यह दावा किया जा सकता है कि यह विश्व स्तर की किसी भी कहानी के टक्कर की है। इसकी शुरुआत जिस तरीके से की गयी है उससे यह विज्ञान कहानी प्रतीत होती है लेकिन ज्यों ज्यों कहानी आगे बढ़ती है इस पर से रहस्य की परत हटती जाती है और फिर पता चलता है कि कैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियां तीसरी दुनिया में अपने उत्पादों को बेचने के लिए बीमारियां फैला रही हैं और केन्द्र सरकार बजाय ठोस कदम उठाने के उन कंपनियों की पिछलग्गू बनी हुई है। इसमें उन अंतर्राष्ट्रीय साजिशों को भी बेनकाब किया गया है जो अमीर देश गरीब देशों के साथ करते हैं और उनका शोषण करके भी उन पर अपनी मेहरबानियां लादते दिखायी देते हैं। इस कहानी में तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के ताने-बाने को भी उजागर किया गया है।
कहानीकार चूंकि पत्रकारिता से जुड़े हैं इसीलिए उन्होंने पत्रकारिता की दुनिया पर भी एक कहानी लिखी है। 'सूखा सूखा कितना सूखा' कहानी के मार्फत पत्रकारिता की सफेद स्याह दुनिया का यथार्थ दिखाया गया है। कैसे एक अखबार अपना विक्रय बढ़ाने के लिए झूठी खबरों को सनसनीखेज बनाकर प्रस्तुत करता है और किस तरह पत्रकार बनने की मनसा लेकर इस क्षेत्र में कूदे उत्साहित युवाओं का शोषण किया जाता है, यह सब इस कहानी में मौजूद है।
फूलबागान का सपना में एक मजदूर के जीवट की कहानी तो कहता ही है मौजूदा व्यवस्था में उसकी नियति को भी बयान करता है। औलाद कहानी मौजूदा दौर के लोगों को हृदयहीनता को व्यक्त करती है तो कुलटा और उसके बारे में आदि कहानियां स्त्री के दर्द और संघर्ष को व्यक्त करने में सक्षम हैं। कायाकल्प एक बच्ची के जीवन के बदलावों का विश्वस्त मनोवैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करती है। एक हिट भोजपुरी फिल्म का कहानी नौटंकी वालों से संघर्ष को भी व्यक्त करती है और उनके दमखम को भी। कुछ मिलाकर इन कहानियों से गुजरना समकालीन जीवन को एक नये संवेदनशील नजरिये से देखना और जानना है और बदलाव की एक बेचैनी को अपने मनोजगत में जगाना है क्योंकि जिस दुनिया से पाठक गुजरा है कुल मिलाकर एक बेचैन दुनिया है।

Sunday 18 April 2010

जीवन संघर्ष और जिजीविषा की बेहतरीन कहानियां

समीक्षा
-कमलेश पाण्डेय
कविता के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाले महानगर के रचनाकार डॉ. अभिज्ञात का पहला कहानी संग्रह 'तीसरी बीवी' का सद्य: प्रकाशन शिल्पायन ने किया है। डॉ. अभिज्ञात के इस पहले कथा संग्रह में हंस, वसुधा, वर्तमान साहित्य, कादंबिनी, नया ज्ञानोदय जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपी उनकी कई कहानियों के साथ कई अप्रकाशित कहानियां संकलित हैं। देश के विभिन्न समाचारपत्रों में कार्यानुभव रखने वाले डॉ.अभिज्ञात की विशेषता है कि वे अपनी कहानियों में जीवन संघर्ष तथा पात्रों की जिजीविषा को कई बार सीधे-सीधे तो कई बार व्यंजना की शैली में प्रस्तुत करते हैं। उनकी कहानी 'कॉमरेड और चूहे' ऐसी ही एक कहानी है, जिसमें लोगों के हित का अंतिम क्षण तक स्वप्न देखने वाले एक कम्युनिस्ट का शव अपनी तमाम उदात्त भावना के बावजूद आखिरकार व्यवस्था का शिकार हो जाता है। उसके शव को समाज रूपी चूहा कुतर जाता है। ऐसा नहीं कि डॉ.अभिज्ञात की कहानियों में नैराश्य की ही प्रधानता है अथवा वे अपनी कहानियों के माध्यम से कोई प्रेरणा देते नहीं दिखते। इनकी कहानियों के पात्र अपनी स्थितियों में बदलाव लाने को प्रस्तुत हैं। 'एक हिट भोजपुरी फिल्म की स्टोरी' के पात्र विरासत में मिली अपनी परंपरा को जिलाये रखने की भावना के साथ-साथ आधुनिकता को भी अपनाने की पूरी जद्दोजहद में जुटे हैं तथा आखिरकार उन्हें अपने मकसद में कामयाबी हासिल होती है। एक ओर जहां डॉ.अभिज्ञात समाज की विभिन्न परिस्थितियों के कलात्मक विश्लेषण में जुटे हैं, वहीं पात्र दर पात्र वे मानव मन का विश्लेषण भी करते हैं। समाज के विभिन्न वर्गों से जुड़े इनके पात्र अपने चरित्रों के अनुसार परिस्थितियों के अनुरूप आचरण करते हैं।
यह डॉ.अभिज्ञात की खासियत है कि वे पाठकों को विशेष तौर पर चौंकाते नहीं हैं बल्कि इनकी कहानियों में कथानक धीरे-धीरे स्वत: आगे बढ़ता है। हालांकि 'क्रेजी फैंटेसी की दुनिया' में डॉ.अभिज्ञात पाठकों के सामने एक ऐसा रचना संसार प्रस्तुत करते हैं, जिसमें प्रकृति के सानिध्य से रक्षा, विनाश की परिकल्पना के साथ-साथ मानवीय मूल्यों के क्षरण का लेखा-जोखा सा पाठकों के सामने मानो उपस्थित हो जाता है। इसी प्रकार इनकी 'तीसरी बीवी' शीर्षक कहानी भी व्यवस्था के कू्रर पंजे में जकड़े लोगों के मानवीय संवेदनाओं को उजागर करती है। डॉ.अभिज्ञात की कहानियां विशेष तौर पर व्यवस्था में जकड़े समाज के दबे कुचले लोगों के पक्ष में उनके जीवन संघर्ष की दास्तान हैं।

अभिज्ञात के कहानी संग्रह तीसरी बीवी की समीक्षा







Saturday 17 April 2010

सामाजिक विसंगतियों का आख्यान

समीक्षा
-लोकेन्द्र बहुगुणा
अभिज्ञात के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह 'तीसरी बीवी' में संकलित कहानियां वर्तमान समाज के जीवन मूल्यों, सपनों और विसंगतियों की जोर आजमाइश का आख्यान हैं। अभिज्ञात ने अपने आसपास घट रही रोजमर्रा की घटनाओं को अलग-अलग नजरिये से अपनी कहानियों में चित्रित किया है।
संग्रह में विभिन्न समय पर लिखी गयी 25 छोटी-बड़ी कहानियां हैं, जिनमें कई विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुई हैं। समाज में हो रहे बदलाव पर लेखक की पैनी नजर है और उसे वे जहां-तहां से निकाल कर पाठक के सामने लाते हैं? किस्सागोई के हिसाब से वे कहानियां पाठक को ज्यादा आकर्षित करती हैं जो आत्म कथ्यामक या संस्मरणात्मक अंदाज में लिखी गयी हैं लेकिन कई कहानियों में सशक्त विषय- वस्तु के बावजूद सपाटबयानी है लेकिन इन सीमाओं के बावजूद इसमें दो राय नहीं कि कहानियां सामाजिक सरोकार के वे सवाल छोड़ जाती हैं जिनसे बचने की कोशिश तमाम दावों के बावजूद जारी है।
संग्रह की सबसे लंबी कहानी 'क्रेज़ी फैंटेसी की दुनिया' और सबसे छोटी 'बंटवारे' हैं जो अपने अपने ढंग से आज के 'सच' को सामने लाती है। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से 'क्रेज़ी फैंटेसी की दुनिया' को अगर संग्रह की सबसे बेहतर कहानी कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। व्यवस्था की हकीकत को कहानी के जरिये जिस तरह पेश किया गया है वह काबिलेगौर है। कहानी का नायक एक वैज्ञानिक है, जो पारिवारिक एवं सामाजिक जिम्मेवारियों से उदासीन अन्वेषण की अपनी दुनिया में मस्त रहता है। उसे अपने पारिवारिक दायित्वों का तब बोध होता है जब उसकी पत्नी का देहांत हो जाता है और एकमात्र संतान पुत्री की देखभाल में उसे माता और पिता दोनों की भूमिका निभानी पड़ती है। पुत्री को मां की कमी और अकेलापन न खले इसके लिए वह कहानियां गढ़ने लगता है और धीरे-धीरे उसे भी इस लेखन में मजा आने लगता है। ऐसे ही एक प्रयास में वह एक अजीबोगरीब चरित्र की कल्पना करता है। वह अपनी कहानियों में क्रैजी फैटेंसी नाम के एक खास चरित्र गढ़ता है जो मन चाही शक्ल अख्तियार करने में माहिर है। उसकी ये कहानियां और पात्र क्रैजी फैंटेसी पाठकों द्वारा इस कदर पसंद किये जाते हैं कि वे इस कल्पना को हकीकत मानने लगते हैं। ऐसे वक्त में मुल्क में एक अजीब तरह की बीमारी फैलती है और लोग इसकी वजह क्रैजी फैंटेसी को बताने लगते हैं। पता चलता है कि यह बीमारी एक खास तरह के विषाणु से फैलती है और यह विषाणु किसी विकसित मुल्क की देन है। इस फैंटेसी के जरिये आधुनिक समाज व तंत्र की विसंगतियों को दिलचस्प अंदाज में उजागर करने की कोशिश की गयी है। वास्तविकता और कल्पना की यह मिलावट अपने निहितार्थ के कारण आधुनिक समाज की आशा-आशंकाओं और संभावनाओं के व्यापक विस्तार का परिचय देती है। दरअसल कुछ समय पहले जब पहले बर्ड फ्लू और बाद में स्वाइन फ्लू( जिसका असर मुल्क में अब भी बरकरार है ) के बारे में वैश्विक स्तर पर सूचनाओं के आदान- प्रदान और जन जागरण की मुहिम के दौरान समाज के विभिन्न स्तरों पर इस तरह के सवाल उठे थे। वैज्ञानिक गतिविधियों और प्रशासनिक व्यवस्था से जड़े लोगों में यह सवाल भी उठा था कि क्या इस तरह की 'महामारियों'के बारे में लोगों को जागरूक बनाने की जगह आतंकित तो नहीं किया जा रहा है।
संग्रह की 'तीसरी बीवी','फूलबागान का सपना'और 'जश्न' जैसी लघु कहानियां रोजी-रोटी के अवसरों की दृष्टि से सिमटते गाँव फैलते शहरों के अंधेरे पक्ष के कटु सत्य को सामने रखती है। लिहाजा वे पाठक के मर्म को बेधती हैं। हालांकि ये कहानियां कोलकाता महानगर और उसके आसपास के परिवेश में केंद्रित हैं लेकिन ये दृश्य मुंबई, दिल्ली या ऐसे ही किसी महानगर के परिवेश की भी हो सकती क्योंकि कमोबेश कारक और हालात सभी जगह एक से हैं। हालांकि 'एक हिट भोजपुरी फिल्म की स्टोरी' जैसी कहानियों के जरिये यह अहसास कराने की कोशिश भी की गयी है कि सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है, बेहतरी की संभावनाएं एकदम खत्म नहीं हुई हैं।
पुस्तक : तीसरी बीवी
लेखक : अभिज्ञात
प्रकाशक : शिल्पायन, दिल्ली
मूल्य : 150 रुपये
पृष्ट : 120

Tuesday 13 April 2010

फूलबागान का सपना

साभार: द पब्लिक एजेंडा 20 फरवरी 2010



कहानी
वह मज़दूर था चटकल का। उसे सपने एकदम नहीं आते थे। अलबत्ता वह सोचता कि काश उसकी ज़िन्दगी सपना ही होती और आंख खुलते ही वह सपना टूट जाता। वह जिस हक़ीकत में लौटता वह मजदूर जीवन न होता। कठिन मशक्कत के बाद रोटियां जुटती हैं। चार-चार बच्चे हो चुके थे। जिनमें तीन तो बेटियां थीं। कैसे वह उन्हें पार लगायेगी यह चिन्ता उसे अभी से सताने लगी थी। हालांकि चिन्ता करने के लिए भी उसके पास वक्त सीमित था क्योंकि काम से बाद उसके पास इतनी थकान रहती थी कि वह बाक़ी समय में खूब सोता। नींद से उठता तो नित्यक्रम से निपटने के बाद खा-पीकर काम पर चला जाता और लौटकर सो जाता। कभी-कभी तो उसे भ्रम होता कि वह काम करने के लिए ही जी रहा है। उसके जीवन का पूरा चक्र काम को ध्यान में रखकर बना है। वह खाता है, विश्राम करता है ताकि काम कर सके। उसकी सारी गतिविधियां काम की तैयारी से जुड़ी हैं। उसकी संतानें और पत्नी की जिम्मेदारियां प्रभु ने इसलिए दी हैं ताकि उसे काम करने की वजह मिले। ये ठोस वजहें न होतीं तो शायद वह कठिन श्रम से भरे काम से विरत हो जाता।
वह दिन और दिनों से कुछ अलग सा था। मिल में असिस्टेंट मैनेजर साहब ने उसे अपने घर भेजा था मोबाइल फोन लाने, जिसे वे भूल आये थे। ड्राइवर गाड़ी लेकर उनके बच्चे को छोड़ने गया था जो दूर के स्कूल में पढ़ता था। आफिसर्स क्वार्टर मिल परिसर में ही था। सो उसे भेजा गया। वह बंगलेनुमा क्वार्टर में पहुंचा तो देखकर दंग रह गया। क्वार्टर के सामने तरह तरह के फूल। दरवाजे की घंटी बजायी तो खूबसूरत परी जैसी मेमसाहब ने दरवाज़ा खोला। ना-ना करने पर भी उसे अन्दर बिठाया गया। गंदी चप्पल को वह बाहर ही उतार आया था किन्तु अन्दर खूबसूरत कालीन पर पांव रखने का उसमें साहस नहीं हो रहा था। सोफे पर आहिस्ते से बैठा वह थोड़ा धंस गया। उसे चाय पिलायी गयी थी। इस बीच चार साल की एक गुड़िया सी बच्ची वहां परदों के बीच से झांक रही थी। वह साहब की बेटी थी। उसे अब तक पता न था कि ज़िन्दगी इतनी सुन्दर भी हो सकती है। खूबसूरत घर, सुन्दर पत्नी, सलोने बच्चे। साहब के घर से लौटने के बाद वह देर तक अनमना रहा। मन में कहीं न कहीं हसरत ने करवट ली। काश उसे भी ऐसी ज़िन्दगी मिली होती।
अगले दिन जब वह नींद से उठा तो उसे दुनिया बदली बदली सी नज़र आयी। उसने बरसों बाद फिर सपना देखा था। फूलों की क्यारियों का, फूलों के बाग का। हां उसने से एक खूबसूरत फूलबागान देखा था। फिर क्या था सपनों से निकल कर फूलबागान उसके जीवन को सुगंधित करने लगा था। एक महक थी केमिकल से नहाये पाट में जिन्हें वह चटकल में सिर पर ढोता था। बोझ उसे फूलों सा हल्का लगने लगता कई बार। धीरे-धीरे उसने जागती आंखों से भी सपने देखने शुरू किये। उसे लगा जीवन बदला जा सकता है। उसने हाजिरी बाबू से लेकर दरवानों और मिल के ट्रेड यूनियन नेताओं को खास तौर पर सलामी दागनी शुरू की। उसके स्वभाव में जो रुखापन था वह दूर होने लगा था। लोगों का व्यवहार भी उसके प्रति बदलने लगा। और वह दिन भी आया जब उसे भी उन लोगों में शुमार कर लिया गया जिन्हें खूब ओवरटाइम मिलते। उसकी कमाई बढ़ने लगी। जैसे जैसे कमाई बढ़ी उसने बचत पर और ज़ोर देना शुरू किया। वह गरीबी के चक्र से बाहर आकर रहेगा उसने प्रण किया और अपने सोचे को हक़ीकत में बदलने का उपक्रम भी शुरू कर दिया। उसने रिक्शा ख़रीदा और दूसरे को चलाने के लिए किराये पर दे दिया। रिक्शा वाले रोज सुबह उसे पहले रिक्शे का किराया देते फिर दिन भर के लिए रिक्शा ले जाते। धीरे-धीरे वह आठ रिक्शों का मालिक बन गया। आय तो बढ़ी लेकिन रिक्शावालों से आये दिन बकझक भी होता और सुबह सुबह उसका मन खराब हो जाता। उसने कमाई को दूसरा रास्ता खोजना शुरू किया और वह आखिरकार मिल गया।
उसने रिक्शे बेच दिये और एक पुराना बेडफोर्ड ट्रक खरीद लिया, बंगला डाला। यह ट्रक उसी मिल में एक ठेकेदार के अधीन चलने लगा। ट्रक उसे औने पौने दाम पर इसलिए मिल गया क्योंकि उसके पेपर नहीं थे। यह ट्रक कोलकाता फूलबागान में कटइया के लिए जा रहा था। वहां ट्रक के कबाड़ खरीदे जाते हैं और उसके पुर्जे-पुर्जे अलग करके फिर बेचे जाते हैं। टायर अलग, चेचिस अलग। नट बोल्टू अलग। पुराने ट्रकों में ये पुर्जे लगते हैं। यह पुराने ट्रकों को कब्रगाह था जहां बीमार ट्रक किसी तरह लड़खड़ाते अथवा किसी अन्य ट्रक से खींच कर ले जाये जाते और कभी वापस नहीं आते। घंटे दो घंटे में उनका अस्तित्व खो जाता।
वह जिस चाय दुकान पर बैठा चाय पी रहा था वहीं सौदा हो रहा था। पुराने खटारे बेडफोर्ड का जो दाम लगा वह महंगू को सस्ता लगा और उसने दाम बढ़ाकर ट्रक खरीद लिया। ठेकेदार को किराये पर दे दिया। ठेकेदार के पास चार ऐसे ट्रक पहले ही थे जिनके पास पेपर नहीं थे। ये ट्रक मिल में पाट और उससे बने उत्पाद को एक स्थान से ढोकर दूसरे स्थान पर ले जाने के काम में लगे थे। चूंकि ये मिल से बाहर जाते नहीं थे ऐसे में उनके लिए नम्बर प्लेट की आवश्यकता नहीं थी और ना ही उनके पेपर्स की। सो हर ट्रक का नम्बर अपनी इच्छानुसार रखा गया था। जिस नाम से उसे उन्हें पुकारा जा सके। ठेकेदार के पास फूलबागान में कटइया पर गये एक ट्रक के पेपर सस्ते में मिल गये थे। सो जरूरत पड़ी किसी ट्रक को मिल परिसर से बाहर निकालने की तो वह उन पेपरों के साथ बाहर निकालता। मिल के बाहर उसके कोई भी ट्रक निकलता तो एक ही नम्बर के साथ। इस प्रकार अब एक पेपर व वैध नम्बर पर चार ट्रक मिल में पहले ही चल रहे थे। महंगू ने डब्ल्यूबी के आगे अपनी पसंद का अंक लगाया और मिल में उसका प्रवेश करा दिया। उसने रिक्शे बेच दिये थे और कम्पनी से कर्ज लिया था और महाजनों से सूद पर रुपये किन्तु वह ट्रक मालिक बन गया था। ठेकेदार से जो किराया तय हुआ था उसके आधार पर वह जल्द ही कर्ज से मुक्त हो जायेगा और फिर बढ़ी हुई आय से उसकी ज़िन्दगी। उसकी जिन्दगी में भी फूल ही फूल होंगे। हरियाली होगी।
ठेकेदार ने एक माह तो ट्रक का किराया वक्त पर दिया किन्तु उसके बाद उसने अपना पैंतरा दिखाना शुरू किया। किराया देने में उसका टालमटोल का रवैया उसके लिए नागवार गुज़रता किन्तु महंगू के पास कोई अन्य विकल्प न था। महाजन जब घर पर आ धमकते तो वह ठेकेदार के यहां चिरौरी करने पहुंचता और अपने प्राप्य किराये का मामूली सा हिस्सा लेकर लौटता और किसी प्रकार साहूकारों से पिंड छुड़ाता। अब उसे सपने आने बंद हो गये थे। काम में मन नहीं लगता। स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था। स्वभाव में रुखापन आ गया था। बात-बात में झल्लाता। वह इधर दारू भी पीने लगा था। अब वह मिलनसार नहीं रह गया था। उसके व्यवहार में आये परिवर्तन के बाद उसे ओवरटाइम मिलना भी बंद हो गया। मिल में लिये कर्ज की वसूली के लिए उसके वेतन का एक बड़ा हिस्सा पगार से कट जाता था। काम पर न जाने की इच्छा व अस्वस्थता के कारण उसके नागे बढ़ते गये सो वेतन और सिमटता गया। वह साहूकारों को जितना पैसा हर माह लौटाता उससे अधिक ले लेता। इस प्रकार वह कर्ज के दलदल में फंसता चला गया। ठेकेदार के प्रति उसकी नफरत बढ़ती गयी। मूल कारण वही था महंगू के दुखों का। उसने ठेकेदार के चंगुल से निकलने का संकल्प लिया।
उसने तय किया कि वह किसी पुराने ट्रक का पेपर खरीद लेगा और अपना ट्रक जल्द मिल से निकाल कर सीईएससी में चलने के लिए दे देगा, वहां पैसा अधिक मिलेगा। और कर्ज मुक्त हो जायेगा। और ठेकेदार से पैसा वसूली के लिए वह थाने तक जायेगा। यह बात उसके मन में थी जो नशे की झोंक में उसके मुंह से निकल गयी। उसने रात ठेकेदार के घर जा उसे खुली चेतावनी दे डाली कि उसके पैसे लौटा दे वरना थाना कचहरी सब होगा।
अगले दिन जब वह मिल में पहुंचा तो उसके पैर के नीचे से ज़मीन खिसकती नज़र आयी। छह आदमी बड़े हथौड़ों के साथ उसके ट्रक पर वार कर रहे थे। और ट्रक के विछिन्न हिस्से एक अन्य ट्रक में लादे जा रहे थे। वहां फूलबागान का वही ट्रक दलाल बैठा था ठेकेदार के साथ जिसने उसके ट्रक का पहले सौदा किया था। उसे समझते देर न लगी कि क्या हो रहा है। वह वहां से भागते हुए सीधे थाने पहुंचा जहां उसने ठेकेदार के खिलाफ रपट दर्ज करायी कि उसके ट्रक को क्षति पहुंचायी जा रही है जो जूट मिल में चलता है। पुलिस के साथ जब वह मिल में पहुंचा तो उसके ट्रक का नामोनिशान वहां नहीं था। दलाल वहां से फूलबागान जा चुका था। पुलिस ने मिल में ट्रक न पाकर महंगू से उसके कागजात मांगे। अब महंगू को काटो तो खून नहीं। उसने जब बताया कि बिना पेपर के ट्रक मिल में चल रहा था तो उसे पुलिस ने अवैध कारोबार में लिप्त होने के आरोप में लॉकअप में बंद कर दिया।
महंगू को फूलबागान का सपना महंगा पड़ा।
साभारः नया ज्ञानोदय

एक भोजपुरी फिल्म की हिट स्टोरी

कहानी
पार्ट 1
बलिया की एक नौटंकी मंडली है। जिसके मालिक हैं राधेश्याम। राधेश्याम की यह पुश्तैनी मंडली है जो अब संकट से गुजर रही है। यह मंडली लोक-उत्सवों, मेलों, शादी-बारात आदि में अपनी कला का प्रदर्शन करती है। इसमें कई कलाकार भी ऐसे हैं जो इसमें पुश्तों से अभिनय, गायन, वादन अथवा सेट बनाने या झाडू मारने आदि का काम करते आये हैं। कुल 15 लोगों की इस मंडली का अपना एक खटारा वाहन भी है और पुश्तैनी ड्राइवर भी। मंडली के लोगों का कहना है कि एक बार अभिनय का जो चस्का लग जाता है तो फिर उसके आगे कोई और चीज नहीं रुचती। इसके कलाकार अपनी जिन्दगी में जो कुछ बनाना चाहते हैं वह नौटंकी में ही बन कर खुश हो लेते हैं। कुछ का तो यहां तक कहना है कि असली जिन्दगी तो जो एक बार बन गये सो बन गये लेकिन नौटंकी में इसकी पूरी छूट है कि राजा चाहे तो रंग बन ले और चोर चाहे तो कोतवाल। यहां ज्यादातर लोग जो सपने देखते हैं वह कुछ देर के लिए हकीकत में भी बदलते हैं भले ही वह नकली क्यों न हो इसलिए नौटंकी को बचाये रखना सबको जरूरी लगता है। कई लोगों को मुनाफे वाले काम मिले भी तो उन्हें वह नहीं जंचे। नौटंकी में राजा बना रहने वाला व्यक्ति वास्तविक जिन्दगी में नौकर नहीं बनना चाहता। और फिर उन्हें जो लोकप्रियता मिली है वह उन्हें सामान्य जिन्दगी नहीं जीने देती। कुछ लोगों ने पेशा बदलना भी चाहा तो नहीं बदल सके। लौट आये फिर नौटंकी में। ( गीत नम्बर 1-राधेश्याम गाता है जिसमें दुनिया को नाटक कहा गया है ) राधेश्याम इस बात को लेकर चिन्तित है कि लोग नौटंकी देखने के बदले अब फिल्में देखने पर जोर दे रहे हैं और उनकी मुख्य प्रतियोगिता फिल्मों से ही है। वे खुलेआम नौटंकी दल के कलाकारों से कहते हैं कि यदि उन्हें लाटरी लग गयी तो वे फिल्म बनायेंगे और उसमें टीम के पूरे कलाकारों को काम देंगे और उनके कलाकारों को मुफलिसी का सामना नहीं करना पड़ेगा क्योंकि फिल्मों में बहुत पैसा और शोहरत है। उनके पिता ने मरते समय भी उनसे वचन लिया था कि चाहे जो हो जाये तमाशा जारी रहना चाहिए और मंडली के लोगों को अपने घर का सदस्य उन्हें समझना है, उनकी जिम्मेदारियां भी निभानी हैं। उनका दुःख सुख का साथी बनना है।
राधेश्याम की उम्र लगभग पचास साल की है। पत्नी गुजर गयी है इकलौता बेटा भी नौटंकी में ही काम करता है। अक्सर वही नायक बनता है जबकि नौटंकी में नायिका का काम करने वाली लड़की के प्रति वह आकर्षित है लेकिन अभी इजहार दोनों ही ओर से नहीं हुआ है। (गीत नम्बर-2-नाटक के एक रिहर्सल के दौरान गीत में उनके मन में फूटते प्रेम के अंकुल का खुलासा होगा )।
पूरा नाटय दल एक ही बड़े मकान के विभिन्न कमरों में रहता है। यह मकान राधेश्याम का है जो जीर्ण शीर्ण अवस्था में है जो मंडली की खस्ताहाली की कहानी कहता है। राधेश्याम के दादाजी को राष्ट्रीय सम्मान मिल चुका है जो स्वयं नौटंकी के लिए मशहूर थे।
राधेश्याम को सुन्दरता से बहुत लगाव है। वह हमेशा सब से कहता है कि वे सुन्दरता पर ध्यान दें। सुन्दर लगें सुन्दर सोचें और चीजों में सुन्दरता की तलाश करें। क्योंकि तभी दुनिया सुन्दर हो सकेगी। दुनिया को सुन्दर बनाने की जरूरत है और वे चाहते हैं कि उनके इर्द गिर्द एक सुन्दर दुनिया हो। वे सभी के चेहरे पर हर वक्त मुस्कान देखना चाहते हैं। रोनी सूरत से उन्हें सख्त नफरत है। हर हाल में खुश रहने का मंत्र भी उन्हें विरासत में मिला है।
राधेश्याम अपने दिन फिरने का इन्तजार कर रहा है और वह रोज सुबह लाटरी का नम्बर मिलाता है क्योंकि वह लग गयी तो उसका फिल्म बनाने का सपना साकार हो सकता है। वरना अब दिन तो ऐसे देखने पड़ रहे थे कि नौटंकी कराने वालों से यह तक नहीं पूछते थे कि क्या लेंगे देंगे। जो मिलेगा उसी में संतोष करने के अलावा कोई उपाय न था। एक ऐसा भी अवसर भी आये जब सबको खाने के लाले पड़ गये और भोजन नहीं पका तो अपनी दिवंगत पत्नी के जेवर बंधक रखने को दे दिये जो अपनी बहू को देने के लिए उन्होंने रख छोड़ा था और पत्नी की अन्तिम निशानी थी। सभी लोग भावुक हो उठते हैं लेकिन दूसरे दिन ही तब खुशी की लहर दौड़ उठती है जब उनकी दो करोड़ की लाटरी लग जाती है।
पार्ट 2
लाटरी का समाचार सुनकर मोहल्ले में सबको मिठाइयां बांटी जाती हैं और राधेश्याम घोषणा करता है कि इस पैसे से फिल्म बनेगी। और सभी के दिन अब फिर जायेंगे। वह शहर के सिनेमाहाल में जाता है जहां एक भोजपुरी फिल्म चल रही है। वह सिनेमाहाल के मैनेजर से गुजारिश करता है कि उसे डायरेक्टर का फोन नम्बर और पते का इन्तजाम कर दे। वह फिल्म बनाना चाहता है। दूसरे दिन उसे बुलाया जाता है और फोन नम्बर पाकर उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। वह पब्लिक टेलीफोन बूथ से डायरेक्टर को फोन करता है कि वह भोजपुरी फिल्म बनाना चाहता है कितने रुपये में बन जायेगी। जब उधर से कहा जाता है कि एक करोड़ लगेगा तो वह कहता है कि वह इतने पैसे का इन्तजाम हो गया है। डायरेक्टर उससे कहता है कि वह अगले हफ्ते ही मुंबई में उससे आकर मिले। वह फोन के पास खड़े मंडली के लोगों को बताता है कि हम सब मुंबई जा रहे हैं फिल्म बनाने तो सभी बाजार में नाचते और गाते हैं। (गीत नम्बर-3-इस गीत में लोगों की आशाओं के पूरा होने, मंगल कामनाओं की बातें और मंदिर में सबके पूजा करने का दृश्य होगा)।
पार्ट 3
ट्रेन से पूरी मंडली मुंबई पहुंचती है। वहां डायरेक्टर यह देखकर भौंचक्का रह जाता है कि राधेश्याम अकेले नहीं बल्कि पूरी मंडली के साथ आया है। वह डायरेक्टर से कहता है कि वह अपने साथ अपने पूरे कलाकार लेकर आया है और ये सभी लोग उसमें अभिनय करेंगे। गाना गायेंगे, गीत लिखेंगे और बजायेंगे, नाचेंगे। हर आदमी कई कई कलाओं में माहिर है। उसे दूसरे कमरे में बैठाकर डायरेक्टर अपने लोगों के साथ बातचीत में कहता है कि यह बड़ी गड़बड़ी हो गयी। यह तो पूरी मंडली के साथ आया है। सभी लोगों को चलता करना होगा। यदि सब कुछ यही लोग करेंगे तो फिर हमारी टीम के लोग क्या करेंगे। कई कलाकार ऐसे हैं जिनका उनके साथ लेन देन है। कुछ ऐसे भी हैं जो उनकी फिल्मों में पैसा लगते हैं उनके लोगों को दूसरी फिल्मों में भी काम देकर ओब्लाइज करना है। कुछ ऐसी लड़कियां भी हैं जिन्हें उन्होंने फिल्मों में काम देने का वादा किया है। कई दूसरे डायरेक्टरों से भी सम्बंध बनाये रखना होता है। अपने प्रिय हीरो हिरोइनों गायकों और संगीतकारों को वे क्या कहेंगे। किसी तरह मंडली के लोगों को टरकाना होगा। यह तो पूरा पैसा ही बचा लेगा। वे योजना बनाते हैं कि राधेश्याम को दुनिया की रंगीनी दिखाकर उसे शीशे में उतारना होगा। शराब और शबाब से दुनिया में बड़े-बड़े साधु संत नहीं बचे यह किस खेत की मूली है। इधर राधेश्याम एक सस्ते से होटल में पूरी टीम के साथ रहता है और फिल्म की तैयारियों में जुट जाता है। उससे डायरेक्टर कहता है कि वह उससे मिलता मिलाता रहे। फिल्म इंडस्ट्री को पहले समझे फिर तो फिल्म बनती ही रहेगी।
अब डायरेक्टर अपनी योजना के अनुसार उसे बहकाने में लग जाता है। वह उसे जहां मिलने के लिए बुलाता है वहां लड़कियां न सिर्फ डायरेक्टर से बल्कि उससे भी चिपकती हैं। और मना करने के बावजूद उसे शराब भी बार बार आग्रहपूर्वक पिलायी जाती है। उसे समझाया जाता है कि जिन्दगी रंगीन होनी जरूरी है। यह ख्वाबों की दुनिया है यहां लोग अपने ख्वाब पूरे करने आते है इसलिए जिन्दगी भी कभी कभार ख्वाब सी हसीन होनी चाहिए। एक हिट फिल्म लोगों की पूरी जिन्दगी की दिशा बदल देती है। राधेश्याम को बताया जाता है कि यदि उसे फिल्म इंडस्ट्री में रहना है तो यहां तो तौरतरीकों से परहेज नहीं करना चाहिए। शराब और शबाब के बिना यहां किसी का काम नहीं चलता। वह सबसे कटछंट जायेगा। वह जितना जल्दी यहां का रंगढंग अपना लेगा उसे सुविधा होगी।
फिर उसे नशे की हालत में समझाया जाता है कि यहां लोगों को आसमान से जमीन पर गिरने में भी देर नहीं लगती। वह जो एक करोड़ रुपये लगा रहा है यदि वह सभी महत्वपूर्ण रोल और काम काज अपने ही लोगों को देगा तो पता नहीं फिल्म का क्या होगा। बिना नाम किये लोगों की फिल्म देखने दर्शक नहीं आयेंगे तो फिल्म बुरी तरह पिट जायेगी। फिर वितरक भी नहीं मिलेंगे। उसका पैसा पानी में जायेगा। और फिर अपने घर लौट कर उसे नौटंकी करनी पड़ेगी। उसे नौटंकी और फिल्म का फर्क समझना होगा। जो लोग फिल्म इंडस्ट्री में आज हैं वे काबिल लोग हैं। उन्हें न चाहते हुए भी फिल्म में लेना पड़ता है उनके नखरे सहने पड़ते हैं उनकी बत्तमीजियां झेलनी पड़ती हैं क्योंकि वे जनता की नजर में कामयाब लोग हैं फिल्में उन्हीं के बल पर चलती हैं। (गीत नम्बर 4-किसी होटल में कैबरे नृत्य के साथ) और धीरे-धीरे राधेश्याम पर उसकी बातों का प्रभाव पड़ता है।
एक दिन अचानक उसका बदला हुआ व्यवहार होटल में उसकी टीम के लोगों को साफ दिखायी पड़ने लगता है। उनकी जिन खूबियों के लिए वह उन्हें पसंद करता है उसे खामी कहने लगता है। बात-बात पर तुनक उठता है। हमेशा चेहरे पर मुस्कुराहट रखने वाला राधेश्याम अब गंभीर रहने लगता है। डायरेक्टर उसे ले जाकर फिल्म इंडस्ट्री में जमे जमाये हीरो, हिरोइन और गायक कलाकारों को साइन कराकर एडवांस दिला देता है। हालांकि उसकी यह बात मान ली जाती है कि राधेश्याम के साथ आये कलाकारों को भी कम महत्व के रोल दिये जायेंगे।
पार्ट 4
फिल्म की शूटिंग शुरू हो गयी। अब राधेश्याम को काटो तो खून नहीं। वह मुंबई के कलाकारों का अभिनय देखकर कूढ़ता रहता है। उसे अपने अन्दर का डायरेक्टर लानते भेजता है। उसने अपनी मंडली के कलाकारों के साथ जो दूरी बना रखी थी उसे दूर करता है और अपना दुख बांटने लगता है। उसे अफसोस होता है कि कलाकार हिन्दी डायलाग बोल रहे हैं उन्हें भोजपुरी बोलनी नहीं आ रही है। भोजपुरी जीवन के तौर तरीकों से भी फिल्म का कोई वास्ता नहीं दिखायी पड़ता न ही पहनने और व्यवहार का तौरतरीका ही भोजपुरिया है। अभिनय का कच्चापन साफ दिखता है। सही अभिनय कैसा होना चाहिए उसके कलाकार फिल्म की शूटिंग से थोड़ी दूर पर करकर के दिखाते हैं और मन मसोस कर रह जाते हैं। सभी कलाकार बार बार तैयार होते हैं कि शायद उन्हें अब भूमिका करना पड़ेगी मगर बहुत मुश्किल से कोई काम मिलता है और तनिक भी गलती होने पर उन्हें डायरेक्टर की जोरदार फटकार मिलती है और वह उन्हें अपमानित भी करता है कि काम तो आता नहीं चल दिये रोल करने। नौटंकी और फिल्म बड़ा फर्क होता है। फिल्म में जिसे नायिका रखा जाना चाहिए था नौटंकी की उस नायिका को झाड़ू मारने की एक छोटी सी भूमिका दी जाती है और उसे ऐसा मेकअप किया जाता है कि वह कम सुन्दर लगे क्योंकि तमाम मेकअप के बावजूद असली नायिका उसके आगे एकदम फीकी पड़ रही थी। नायक गंजा और 50 साल का था जिसे 22 साल के युवक की भूमिका दी गयी थी। मेकअप के बावजूद उसका बुढ़ापा झांक रहा था जबकि राधेश्याम के बेटे को चपरासी की छोटी भूमिका मिली थी जिस पर नायक नायिका दोनों लिपट कर रो पड़ते हैं और एक दूसरे के और करीब आते हैं। नायिका को झाड़ू मारने के दृश्य की शूटिंग में तो वह राधेश्याम खुद भी रो पड़ता है। वह अपने आप से कहता है कि यह जघन्य पाप उससे हो रहा है जिसे नौकरानी बनना चाहिए था वह रानी बनी है और दोनों की भूमिका उल्टी है। इधर गांव से फोन आता है कि कौन कौन कौन सा रोल कर रहा है। जरूर नायक नायिका ही नायक नायिका फिल्मों में होंगे। वे लोग फोन राधेश्याम को पकड़ा देते हैं। राधेश्याम को लोगों को जवाब देते नहीं बनता वह कहता है कि गांव के लोगों की आवाज साफ सुनायी नहीं दे रही है। और वह फूट-फूट कर रोता है। (गीत नम्बर-5 होटल में एक दर्द भरा गीत नौटंकी का एक कलाकार गाता है पूरबी)

पार्ट 5
इस बीच नौटंकी वाले जिस होटल में ठहरे रहते हैं वहां फिल्म का असिस्टेंट डायरेक्टर भी आता है। वह बताता है कि उसने एक जमाने में कई हिट फिल्में दी थीं फिर उसने अपने पैसे से फिल्म बनायी जो पिट गयी और उसका सब कुछ बिक गया। वह असिस्टेंट बनने को मजबूर हो गया है। किन्तु वह उन लोगों की बातें सुनता रहता है वह उनसे हमदर्दी रखता है। वह उनकी मदद कर सकता है। वह कम से कम पैसे में उनकी फिल्म बना देगा क्योंकि जिस तरह से काम चल रहा है डायरेक्टर उससे एक करोड़ के बदले डेढ़ करोड़ वसूलने की फिराक में है। बजट बढ़ने जा रहा है। वह कहता है कि वह राधेश्याम की मंडली के लोगों को लेकर ही हिट फिल्म बनायेगा उसे बस वे एक मौका दे दें इससे वह खुद भी अपनी विफलताओं से बाहर आ जायेगा। दोनों का फायदा होगा। आखिरकार राधेश्याम अपने डायेरक्टर से कह देता है वह फिल्म से डायरेक्टर को निकाल रहा है और असिस्टेंट डायरेक्टर ही फिल्म पूरी करेगा। इसके बाद तो पुराने सारे कलाकार हटाये जाते हैं नौटंकी वाले नायक नायिका फिल्म में नायक नायिका बन जाते हैं। (गीत नम्बर- 6-दोनों पर एक गाना फिल्माया जाता है)
गीत के दौरान ही दृश्य दिखाये जाते हैं जिसमें फिल्म का विभिन्न सिनेमाघरों में प्रदर्शन हो रहा है। आटोग्राफ लेने वालों की भीड़ है। राधेश्याम और उनकी नौटंकी टीम बलिया आती है जहां सिनेमाघर में उनकी फिल्म लगी है। लोगों की अपार भीड़ लगी है और फूल मालाओं से उनका स्वागत लोग करते हैं।
अन्त में बताया जाता है कि राधेश्याम की फिल्म को एवार्ड मिल गया। नायक नायिका की शादी हो जाती है और शादी के बाद नायिका फिल्म छोड़कर बच्चे सम्भाल रही है। जबकि नायक की कई फिल्में हिट हो गयी हैं। असिस्टेंट डायरेक्टर फिर फिट डायरेक्टरों में गिने जाने लगे हैं। मंडली के बाकी सदस्य भी मुंबई में काम में व्यस्त हैं। फिल्म इंडस्ट्री उन्हें रास आ गयी है।
समाप्त।
साभारः इंडिया न्यूज़

मुक्ति


कहानी
सर्दी शुरू ही हुई थी। मध्य एशिया के साइबेरिया से अपने तमाम दोस्तों के साथ उड़कर आया था ग्रे हंस। बल्लभपुर की झील में उतर ही रहा था कि गोली लगी। वह गिरा तो लहू लुहान था। वन्य प्राणियों से हितों के संरक्षण की आवाज़ बुलंद करने वाले स्वयं सेवी संगठन ने न सिर्फ उसका बचाव किया बल्कि उस शिकारी को भी पकड़ लिया जिसने उसे अपना निशाना बनाया था। शिकारी को न सिर्फ़ पुलिस के हवाले किया गया बल्कि उसके ख़िलाफ़ थाने में एफआईआर भी दर्ज़ करायी गयी। संस्था ने थाने में जो अभियोग दायर किया था उसके मुताबिक़ पश्चिम बंगाल के वीरभूम की झीलों में सुदूर साइबेरिया मध्य एशिया से पंछी आते हैं। यहां अण्डे देते हैं। यहीं उन्हें सेते भी हैं। उनके चूजे धीरे-धीरे उड़ना सीखते हैं। और जब तक सर्दियां ख़त्म होती हैं वे परिवार उड़ जाते हैं और मूल स्थान की ओर। विदेश के बाज़ार में इन पंछियों की अच्छी ख़ासी क़ीमत है सो इन पंछियों को पकड़ने की फ़िराक़ में पंछी तस्करों का पूरा गिरोह सक्रिय है। उनके अण्डे चुरा लिये जाते हैं। उन्हें अन्य पंछियों से सेवाकर उनके चूजों को बेच दिया जाता है। बड़े पंछियों को एक ख़ास तरह की गोली उनके दाएं हिस्से में मारी जाती है। जख़्मी हालत में वे शिकारी की गिरफ््त में आ जाते हैं। ठीक हो जाने के बाद उन्हें भी बाज़ार के हवाले कर दिया जाता है। बिहार के दुमका में इन पंछियों की ख़रीद फ़रोख़्त का लम्बा चौड़ा बाज़ार है। वहां से ख़रीद कर उन्हें पटना ले जाया जाता है। पटना से वे विदेश भेजे जाते हैं। चूंकि मामला दो राज्यों का हो जाता है इसलिए वन विभाग द्वारा इन पर रोक लगाने की कोशिश कर भी विफल ही रहती है। कई कानूनी अड़चनें भी आती हैं।
मामला शुरू हुआ। शिकारी अंतरराष्ट्रीय गिरोह से जुड़ा था सो निपटने की कोशिश शुरू हुई। हंस को पहले तो वनविभाग में इलाज के लिए भेजा गया। अदालत में पड़ने वाली तारीख़ों में बतौर सबूत के हंस को पेश करने की जरूरत अदालत ने महसूस की। इसलिए स्वस्थ हो जाने पर भी उसे मुक्त नहीं किया गया। पेशियों का सिलसिला सवा दो साल चलता रहा। हंस लगातार क़ैद भुगतता रहा। मुकदमा ठोंकने वाली संस्था के पदाधिकारियों पर शिकारी गिरोह का ऐसा जादू चला कि गवाह मुकर गये। पुलिस शिकारी को ही बचाने में लगी रही। अदालत ने आख़िरकार अपना फ़ैसला सुना दिया। शिकारी गवाहों और सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया। उसकी एक वज़ह तो यह रही कि हंस के जख़्म महीनों पहले ही सूख गये थे। अदालत में अपने जख़्मों के बारे में स्वयं हंस कुछ कह नहीं सकता था।
अदालत ने वन विभाग को आदेश दिया कि हंस को मुक्त कर दिया जाये। फ़ैसले की रात वन विभाग के कार्यालय में शानदार दावत हुई। दावत में शिकारी, पुलिसवाले व वनविभाग के अधिकारी शामिल थे। पैग पर पैग खाली होते गये। उनकी प्लेटों में हंस का तला हुआ नर्म व लज़ीज गोश्त था, जिसे बड़े चाव से खाया जा रहा था। दावत के दूसरे दिन पूरे विश्वास के साथ रिपोर्ट फ़ाइल कर दी गयी कि हंस को मुक्त कर दिया गया है।
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साभारःकादम्बिनी

औलाद

  कहानी

 -डॉ.अभिज्ञात
नरेश दंग रह गया, जब स्वयं नवजात बच्चे की मां ने लगभग उनींदी स्थिति में उससे कहा-"डा.प्लीज़, थोड़ी मेरी हेल्प कीजिए। यह बचना नहीं चाहिए।"
उसे उपने कानों पर सहसा यकीन नहीं हुआ। उसे लगा उसे सुनने में कुछ ग़लती हुई है। उसने फिर पूछा-"क्या कहा आपने नीना जी?
-"आपने ठीक सुना। आप बच्चे को बचाने की कोशिश मत कीजिए। मैं नहीं चाहती कि यह रहे। यह मेरे कैरियर का सवाल है। मैं एक एयर होस्टेस हूं। मेरे कैरियर में बच्चे व पति का कोई स्थान नहीं है।"
-"फिर आपने ऐसा किया ही क्यों? क्या आप नहीं जानतीं थीं कि यह होगा?"
-"अब छोड़िए भी कि क्या मैं जानती थी और क्या नहीं। दरअसल मैंने जो कुछ सोचा था वह नहीं हुआ। एकदम नहीं। मैं जिससे प्यार करती थी मैं उसके साथ घर बसाना चाहती थी। उसने ऐन वक्त पर धोखा दे दिया। शादी से ही इनकार कर गया। मैं पहले ही बच्चा गिराना चाहती थी लेकिन उसने झांसा दिया कि ऐसा क़दम उठाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि उसके घर वाले उसे इसी हालत में अपना लेंगे। वह जब अपनी बात से फिरा तब तक बहुत देर हो चुकी थी। डॉक्टरों ने साफ़ कह दिया अब कुछ नहीं हो सकता काफी वक़्त बीत चुका है और अब एबार्शन नहीं हो सकता। मैंने इसे मज़बूरी में जन्म दिया है महज अपनी जान बचाने के लिए। मैं अपने प्रेमी को खो चुकी हूं। अब नौकरी से भी हाथ नहीं धोना चाहती और ना ही लोगों के ताने सुनने के लिए तैयार हूं। मैं इस बच्चे से छुटकारा पाना चाहती हूं। यह तक नहीं जानना चाहती कि यह बेटा है या बेटी। मेरे लिए बस यह मुसीबत है और मुझे इससे छुटकारा दिलाइये। मैं आपको लाख-डेढ़ लाख दे सकती हूं। ले लीजिए। आपके काम आयेंगे। देख रही हूं आप इसकी सेहत को लेकर परेशान हैं। कह रहे थे कि आठ महीने का ही है इसलिए हालत थोड़ी गंभीर है। आप यूं ही छोड़ दीजिए न। अपने आप आपका और मेरे दोनों का काम हो जायेगा।"
-"माफ़ कीजिए. मैं ऐसा नहीं कर सकता। यह मेरा बच्चा है। मेरा पहला बच्चा जिसे मैंने जन्म दिया है। मेरे डॉक्टरी के कैरियर की पहली उपलब्धि। थोड़ा कमज़ोर ज़रूर है लेकिन जल्द ही ठीक हो जायेगा और मेरा यक़ीन है यह किसी भी मामले में किसी भी बच्चे से पीछे नहीं रहेगा। यह बेटा है। मेरा बेटा जिसे मैंने जन्म दिया है। आपसे अधिक मेहनत मैंने की है। मेरी जान टंगी हुई थी इसे लेकर। कितना सुन्दर है, कितना प्यारा। जल्द ही यह हंसेगा। कुछ दिन में बोलेगा। और यह तो तय है कि रहेगा दुनिया में। सालों साल। हमारे बाद भी।"
-"यू शटअप। यह तुम्हारा बच्चा कैसे हो गया डॉक्टर?... अच्छे सिरफिरे से पाला पड़ा है। कुछ कर सकते हो तो करो वरना मैं कोई दूसरा उपाय करूंगी। तुम नहीं मानोगे तो इस नर्सिंग होम का मालिक मान जायेगा। यही होता कि जो मैं तुम्हें दे रही हूं वह उसके हिस्से चला जायेगा। कुछ और भी लगा तो मैं उसे दे दूंगी। खैर, इससे तुम्हारा क्या। तुम तो बस यह बताओ कि मेरा काम करोगे या नहीं। तुम्हें बस इतना ही करना है कि उसकी तबीयत बिगड़ ही है उसका इलाज मत करो। सुबह तक सब अपने आप ठीक हो जायेगा। तुम पर कोई उंगली नहीं उठेगी। तुम्हारे इंचार्ज को भी कुछ नहीं पता चलेगा। और चाहो तो..... तुम डॉक्टर हो। यह खेल मिनटों में सलट सकता है।"
-"आप अपनी लिमिट में रहिए और मैं जो कर रहा हूं बच्चे की भलाई के लिए करने दीजिए।"
नरेश कुछ सोचता हुआ तेजी से उस कमरे से बाहर निकला। उसने अपने पिता को फ़ोन लगाया-"पापा मैंने उस बच्चे को जन्म दिया है जिसके बारे में कल आपको बता रहा था। मां-बच्चा दोनों ठीक हैं। बस बच्चा थोड़ा कमज़ोर है पर स्थिति काबू में है। लेकिन एक मुश्क़िल खड़ी हो गयी है बच्चे की मां उसे अपने पास नहीं रखना चाहती। मैं सोचता हूं क्यों न हम ही उसे अपने पास रख लें।"
-"पर बेटा। हम दूसरे के बच्चे को कैसे ले सकते हैं। उसकी तमाम ज़िम्मेदारियां उठानी होंगी। यह एक गंभीर मामला है। आनन-फानन में निर्णय नहीं लिया जा सकता। बेटा अब में रिटारमेंट के क़रीब हूं। मैं अभी तुम भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हुआ हूं। फिर एक और ज़िम्मेदारी उठाना मेरे वश में नहीं है।"
-"पापा मैं उसे इस हालत में नहीं छोड़ सकता। उसकी मां उसे नहीं छोड़ेगी और मैं अपने पहले बच्चे को यूं नहीं मरने दूंगा। आप कुछ नहीं कर सकते तो मैं इसे गोद ले लूंगा।"
-"अरे अभी तुम्हारी शादी तक नहीं हुई। तुम यह निर्णय अकेले कैसे ले सकते हो? इतना सेंटीमेंटल बनने से काम नहीं चलेगा। बी प्रैक्टिकल।"
-"सारी समस्या तो अधिक प्रैक्टिकल बनने से ही पैदा हुई है। आप कुछ कीजिए। आपको कोई न कोई रास्ता निकालना ही होगा। आप इस समस्या से भले मुंह फेर लें मैं मुंह नहीं फेर सकता। यह मेरे वश में नहीं है।"
अभी नरेश ने फ़ोन डिस्कनेक्ट किया ही था कि फ़ोन बजने लगा। उसने मोबाइल पर नाम देखा। डॉ.आरएमजी ....यह उसके बॉस का फ़ोन था। इस नर्सिंग होम के मालिक का। पहले तो उसका मन बात करने का नहीं कर रहा था किन्तु अधिक देर तक रिंग होती रही तो उसने फ़ोन रिसीव कर लिया-"डाक्टर नरेश! यह क्या बचपना है? क्लाइंट की मदद करो। हमें अपना दिमाग़ ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। वह अच्छी ख़ासी रकम दे रही है। मैं चाहता हूं तुम मामले को ठीक से हैंडल कर लो। यह आये दिन का मामला है। तुम जो चाहो बना लो। हम भी कुछ न कुछ पा जायेंगे। तुम्हारे आटीट्यूड से तो हमारा धंधा चौपट हो जायेगा। करोड़ों रुपये घुस गये हैं यह नर्सिंग होम बनाने में। क्या आदर्श बघारने के लिए हमने डॉक्टरी का प्रोफेशन अपनाया था। यह काम हम नहीं करेंगे तो लोग अपने यहां क्या करने आयेंगे। नार्मल डिलीवरी का केस को कहीं भी हैंडल हो जाता है क्या उन्हें नहीं पता है। सत्तर-अस्सी हजार तक लेते हैं हम। क्लाइंट को भी तो कुछ सुविधाएं देनी होंगी। क्लाइंट को क्या चाहिए यह हम नहीं तय कर सकते। यह उसकी बात है। हमें उसे कोआपरेट करना होगा। सबकी अपना मुश्कि़लें होती हैं और अपने अपने लाज़िक। उन्हें अपने ढंग से जीने दो। तुम क्या सोचते हो तुम नहीं करोगे तो दूसरे डॉक्टर नहीं हैं क्या? तुम्हारे सभी कलीग यही करते हैं। तुम अभी नये-नये हो। तुम्हें यह सब जल्द से जल्द सीख लेना चाहिए। इमोशन बेवकूफ़ों की चीज़ है। अभी मेरे पास फ़ोन आया था नीना का। डू इट ह्वाट शी वांट।"
-"लेकिन सर...।"
उसे कुछ बोलने का मौका नहीं दिया गया था। फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया गया। इसी बीच नीना की मां वहां गुस्से से पैर पटकती हुई आ पहुंची। उसके साथ एक काला-कलूटा आदमी था। वह हाव-भाव से ही नशे में धुत्त लग रहा था। नरेश ने दिमाग़ पर ज़ोर डाला तो पहचान गया। वह इसी मोहल्ले में ड्रेन की साफ़-सफ़ाई करता है। जब वह नाइट ड्यूटी के बाद सुबह घर जाने के लिए मोटरसाइकिल पर चढ़ने जाता था तो दो एक बार ड्रेन साफ़ करने के उपक्रम में देख चुका है। कभी-कभार वह रात में नशे में धुत्त हो हंगामा भी करता देखा गया है। पास ही बनी झोपड़पट्टियों में से किसी एक में वह रहता है। जल्द ही नरेश को नीना की मां की प्रतिक्रिया से यह भान हो गया कि बच्चे को झाड़ूदार के हवाले करने की योजना बनी है। नीना की मां ने उससे यह किया है कि वह बच्चे को किसी झाड़ी में छोड़ आये...बदले में उसे पांच हजार रुपये दिये जाने हैं।
नरेश ने नीना की मां को बच्चे के पास जाने से रोक दिया। वह उस पर बिफर पड़ी थी-"तुम चाहते क्या हो? तुम जैसे डॉक्टर बहुत देखे हैं। हमारा बच्चा है, हम जो चाहें करें। तुम बेवकूफ़ हो। तुम्हें तो हम बहुत पैसे दे रहे थे। अब देखो कि वही काम कैसे केवल पांच हजार रुपये में हो रहा है। झाड़ियों में से कोई जानवर बच्चे को उठा ले जायेगा और प्राब्लम साल्व। हम परेशान हैं... हमारी परेशानी और ना बढ़ाओ। हालांकि तुम हमारे लिए कुछ नहीं कर रहे हो फिर भी तुम्हें भी कुछ- न- कुछ दे ही देंगे। बस मुंह बंद रखो वरना हम तुम्हारे मालिक से सीधे सलट लेंगे।"
नरेश अड़ गया। उसने मामला पुलिस में ले जाने की धमकी दी। इसी बीच फ़ोन की रिंग फिर हुई। उसके पिता का फ़ोन था। उनके लहज़े में खुशी साफ झलक रही थी-"बेटे तुम्हारा काम हो गया। मेरे एक दोस्त है, वे संतानहीन हैं। वे तुम्हारे बच्चे को गोद ले लेंगे। तुम बच्चे की मां और उसके घरवालों को वहीं रोककर रखो। हम वकील के साथ वहीं पहुंच रहे हैं। कानूनी लिखा-पढ़ी के साथ गोद लिया जायेगा ताकि बाद में कोई लफ़ड़ा नहीं हो।"
इधर, नीना और उसकी मां ने तुरंत बच्चे को दूसरे को देने पर अपनी हामी भर दी और वे तुरंत घर लौटने की तैयारी करने लगे। नरेश ने काफी अनुरोध किया कि वे थोड़ी देर रुकें जिससे कि कानूनी लिखा-पढ़ी हो सके। वे क़ानून का लेने की धमकी के बाद ही रुके। थोड़ी ही देर में नरेश के पिता, उनके मित्र, मित्र की पत्नी व उनका वकील वहां हाज़िर थे। हस्ताक्षर कर लिये गये।
इधर वे सभी बच्चे की ओर मुखातिब थे जबकि नीना व उसकी मां ने बच्चे को जन्म के बाद से उसकी तरफ़ देखा तक नहीं था। वे दोनों नीचे उतरीं और कार से अपने गंतव्य की कूच कर गयीं। अभी भी भोर की पहली किरण नहीं फूटी थी। तमाम मुश्क़िलों के बाद बरसों से तरसती एक अधेड़ दम्पति को इस तरह संतान नसीब हुई थी लेकिन यह क्या.....। बच्चे की नयी मां ने बहुत हौले से उसे छुआ लेकिन बच्चे में कोई हलचल नहीं हुई। वह फूट-फूट कर रोने लगी। बच्चे को एक वैध मां-बाप तो मिल गये थे लेकिन उसने उन्हें देखने से पहले ही दुनिया छोड़ दी थी। नरेश ने पाया कि बच्चे का ही नहीं उसका अपना शरीर भी जैसे काठ का हो गया हो। आखिर औलाद तो डॉक्टर नरेश ने ही खोयी थी।
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साभारःआउटलुक

शिनाख्त नहीं

कहानी
लाश अब तक पड़ी थी। दिन के ग्यारह बज रहे थे। रात किसी समय उसका क़त्ल हुआ था। बेदर्दी से उसके जिस्म को किसी धारदार हथियार से ज़गह-ज़गह गोद दिया गया था। लाख रुख़साना की थी। उसकी मां अपने घर के दरवाज़े की ओट से रह-रह कर झांक लेती थी। लाश के पास आकर बैठे, उसके लिए रो सके, इतना साहस उसमें नहीं था। रुख़साना के पिता और उसके भाई तो तड़के ही हत्या की ख़बर पा घर से निकल भागे थे। कहीं पुलिस ख्वामख्वाह उन्हें इस मामले में न लपेट ले। शिनाख्त की बात तो आयेगी ही। पूछताछ से गुज़रना पड़ेगा। तिल का ताड़ बनते देर क्या लगती है। पुलिस के बरताव का क्या ठिकाना? ज़िन्दा थी रुख़साना तो उससे पुलिस ने मुख़बिरी का काम लिया। किसी ने अपना हिसाब चुकता कर लिया होगा। भाई का पहले ही यह मानना था। जो वह कहता था वही हुआ।
लाश पड़ी थी। रोने वाला कोई न था। जिनसे इधर छह साढ़े छह महीनों में अपनापा हुआ था वे अवैध निर्माण हटाओ अभियान की चपेट में आकर जहां-तहां बिखर गये थे। पीडब्ल्यूडी और कोलकाता नगर निगम की गाड़ियां उनकी झोपड़पट्टियों का नामो-निशान मिटा चुकी थीं। इन्हीं झोपड़पट्टियों में से एक में साढ़े छह महीनों से रह रही थी रुख़साना, जो अब मरी पड़ी थी।
शब्बीर सुबह से इस गली के तीन फेरे लगा चुका था। तिरछी निग़ाहों से वह लाश को देखता गया था। आख़िर रुख़साना ने उससे मुहब्बत की थी। आज भी उसकी देह की गर्मी उसे रह-रह कर महसूस होती है तो वह रोमांचित हो उठता है। दस दिन पहले एक दफ़ा देर रात को उसक झोपड़पट्टी में घुसा था। रुख़साना ने उसे धकिया कर निकाल दिया था। उसका कहना था वह अपनी बेगम के पास जाये। दूसरे से जब निक़ाह पढ़ ली तो अब क्या वास्ता रहा..? अपने अजन्मे बच्चे की कसम उसने दी थी। भारी मन से वह लौट आया था। उसका दिल जानता है वह ज़िस्मानी सुख के वास्ते रुख़साना के पास नहीं गया था। शब्बीर उस रात बहाने से उसके तकिये के नीचे सौ-सौ के दस नोट दबा आया था। उसका अपराध बोध तब और बढ़ गया था जब दूसरे ही दिन वे नोट एक बच्चे के हाथों वापस लौट आये।
मां भी कभी-कभार देर रात को रुख़साना की झोपड़पट्टी में निकल आती और बेटी से लिपट कर घंटों रोती। मुंह में कपड़ा ठूंस लेती ताकि उसकी हिचकियों की आवाज़ें रात के सन्नाटे में सुनायी न दें। लेकिन इतना भर ही नहीं था। बेटी ने ईद की सिवइयां तक क़बूल नहीं की थी। रुख़साना का कहना था जब दुनिया के सामने नहीं दिया तो वह क्यों ले..उसे दया नहीं चाहिए।
ग़लती क्या थी उसकी.. दोनों ही परिवार शब्बीर और रुख़साना के निक़ाह को तैयार थे। मंगनी की रस्म भी अदा हो चुकी थी। निक़ाह से पहले छिप-छिपाकर मिलने लगे थे। कदम बहके तो रुख़साना मां बनने को आयी। बस यही कहर बरपा। शब्बीर के घरवालों का कहना था किस-किस को सफ़ाई देते फिरेंगे कि औलाद हमारे शब्बीर की ही है। निक़ाह के छह महीने में तो किसी को औलाद हो नहीं जाती। मोहल्ले भर को उसका निकाह टूटने की खबर उसके पेट से होने की ख़बर के साथ ही मिल चुकी थी। हर शख्स उसे बाद में देखता और उसके पेट को पहले जिसमें अभी हल्का सा उभार तक नहीं आया था। हर निग़ाह उसे आरे की तरह चीर जाती। जिस दिन शब्बीर का निक़ाह किसी और से हुआ उसी दिन एक डाक्टर से मिलकर रुख़साना ने गर्भ गिरवा लिया। फ़ीस में मंगनी की अंगूठी उतारकर डाक्टर को दे दी थी। उसके घरवालों को ख़बर उस समय हुई जब वे अंगूठी वापस करने की सोचने लगे थे। उन्होंने इतना हंगामा किया कि सबको इसकी ख़बर हो गयी।
पिता, भाई लोक लाज से पहले शर्मसार थे। बच्चा गिरा देने की घटना को बिरादरी की पंचायत ने भी बड़ा गुनाह माना और उसे घर से निकाल देने का हुक्म सुनाया। घर वालों ने तय कर लिया उसका छुआ पानी नहीं पीयेंगे। उसका मरा मुंह नहीं देखेंगे। वरना उनकी अपना जीना भी दूभर हो जाता। और सचमुच जब वह मरी तो अपना मुंह छिपाकर भाग खड़े हुए। नफ़रत से नहीं भय से। उसके बारे में उनके अन्तिम ख़याल थे बड़ी अहमक थी कमबख्त। इसे मरने की और जगह नहीं मिली कायनात में। इसी गली में मरना था।
घर से निकाले जाने के बाद भी तो रुख़साना ने मोहल्ला नहीं बदला था। एक झोपड़पट्टी में शरण ली थी जहां दारू की अवैध ठेक वह चलाती थी। जिसकी आड़ में पुलिस ने उससे मुख़बिरी करवायी तो उसे किसी हद तक सुरक्षा भी दी थी। भूखों मरने की नौबत से बचा लिया था, लेकिन दो दिन पहले वह झोपड़पट्टी उजाड़ दी गयी थी। रात की ठंड में वह रेलवे स्टेशन पर देखी गयी थी। फिर अपने मां-बाप के घर तक पहुंचने वाली गली में मरी हालत में पायी गयी। उस पर क्या गुज़री किसी को इसकी खबर न थी। पर आख़िरकार कोई उसकी लाश की शिनाख्त को तैयार नहीं हुआ। पुलिस भला उसे क्यों पहचाने? शाम को लावारिस लाश ढोनेवाला तिपहिया वैन लेकर डोम आया और उसे उठा ले गया। थाने में एक अनजान युवती, उम्र 20--22 साल की अस्वाभाविक मौत का मामला दर्ज कर लिया गया। शब्बीर ने यह सुना तो उसकी आंखें डबडबा आयी थीं।
तीसरे दिन मामला रफ़ा-दफ़ा होने की ख़बर पाकर रुख़साना के पिता व भाई घर लौटे थे। वे चैन की नींद सोये। बोझ हल्का हुआ। रुख़साना की मां ने अरसे बाद ऐसे मौके पर मुंह में कपड़ा नहीं ठूंसा था, वह हिचकियां ले लेकर रोयी थी देर रात तक। मोहल्ले में किसी ने उसके रोने की वज़ह नहीं पूछी।
साभारः वागर्थ

कायाकल्प

कहानी

दीपक और अमिता दोनों ही अब कामकाजी हो गये थे। उनके लिए बेटी अब एक समस्या ही थी क्या करें इसका। देखरेख कैसे हो. कामवाली बाई के भरोसे बच्ची को घर पर अकेला छोड़कर निश्चिन्त नहीं हुआ जा सकता। तरह-तरह की खबरें अख़बारों में पढ़कर उसका दिल दहल उठता था। बाई का क्या है... थोड़ी सी लापरवाही कर दे तो क्या से क्या हो जायेगा। फिर क्या वह उनकी अनुपस्थिति में ठीक से उसे खिला-पिला भी पायेगी.? अमिता को काम मिले अभी एक सप्ताह ही हुए होंगे किन्तु लगने लगा था कि वे इस समस्या से बरसों से जूझ रहे हों। रोज पति-पत्नी में बेटी की देख-रेख को लेकर कई विकल्पों पर चर्चा होती किन्तु समाधान अभी नहीं मिल पाया था। नाते-रिश्तेदारों में किसी आश्रयहीन महिला के विकल्प पर भी विचार किया गया। आखिर घूमफिर कर एक ही विकल्प उभरता कि दीपक अपनी मां के पास छोड़ आये दीपिका को। मां इंदौर नहीं छोड़ना चाहती थी। दो साल और बचे थे पापा के रिटायर होने में। वहां उन्होंने अपनी ज़िन्दगी के साढ़े तीन दशक काटे थे। दो साल बाद तो फिर इंदौर छोड़ ही देना होगा। उसके बाद तो उनके पास दो ही विकल्प थे वे या तो गांव में देवरिया जाकर रहें या फिर वे दीपक के पास कोलकाता चले आयें। यदि दीपक व अमिता को उनकी ज़रूरत हो तो ही वे कोलकाता आयेंगे। इतना स्वाभिमान तो उनमें था ही कि बेटा यदि अपनी ज़रूरत न बताये तो वे खुद अपनी सुख सुविधा के लिए उनके यहां नहीं रहेंगे। अब तक तो उन्होंने केवल दिया ही है। हर मामले में। वे औलाद के ऋणी नहीं हैं और वे बोझ बनना भी नहीं चाहते। आपस में मां-बाप इस तरह की बातें भी किया करते।
जब दीपक ने फ़ोन पर मां को बताया कि अमिता पढ़ी लिखी है और उसे काम मिल गया है। वह काम करना चाहती थी जिससे कि महानगरीय जीवन की आवश्यकताएं की पूर्ती हो सके। अकेले दीपक ही काम क्यों करे. फिर बच्चों का क्या है. कुछ दिनों में जब जब वह बड़ी हो जायेगी तो उसकी अपनी दुनिया हो जायेगी और अमिता के जीवन में शून्य रह जायेगा। उस समय काम करना भी चाहेगी तो शायद देर हो चुकी होगी। नौकरी पकड़ने की उम्र निकल जायेगी। अब चूंकि अमिता को काम मिल गया है तो उसे संज़ीदगी से जमे रहना चाहिए। आठ-दस हजार कम नहीं होते। एक साथ बड़ी रकम का इज़ाफा प्रतिमाह उनके यहां हो रहा है। आख़िरकार उन्होंने तय किया कि साल-दो साल के लिए दीपिका को इंदौर भेज दिया जाये मां-बाप के यहां। दो साल बाद जब पापा रिटायर हो जायेंगे तो वे लोग भी दीपिका के साथ कोलकाता आ जायेंगे। दीपिका के एकाकीपन की समस्या भी हल हो जायेगी और उन लोगों की भी।
-दीपक ही ले गया दीपिका का इंदौर। अमिता नहीं गयी थी। उसका कलेजा फटा जा रहा था। नौकरी उससे एक बड़ी क़ीमत वसूल रही थी... छह साल की बेटी से ज़ुदाई। लेकिन एक तरफ़ महानगरीय जीवन था, उसकी आवश्यकताएं थीं। स्वयं उसका अपना कैरियर था। तमाम नौकरियों की परीक्षओं व इंटरव्यू की तैयारियों में वह व्यस्त रही थी जिसके चलते वह दीपिका की पढ़ाई पर कितना कम ध्यान दे पायी थे यह वह अच्छी तरह से जानता थी। काम की तलाश में कितना समय और श्रम जाया किया था उसने तब जाकर काम हासिल हुआ था और अब यह काम उससे और बहुत सा वक्त चाहता था। पति-पत्नी दोनों की व्यस्तताओं के कारण बेटी कितनी उपेक्षित थी यह वे दोनों ही जानते थे। अब अमिता को बेटी पर लाड़ आ रहा था। जब दीपक उसे लेकर इंदौर जा रहा था अमिता ने कह दिया था कि यदि दीपिका वापस आने की ज़िद करो ते उसे लेते आये। वह स्वयं नहीं जानती कि दीपिका उन लोगों के बगैर अपनी दादी के यहां रहने को तैयार होगी भी या नहीं।
दीपक इसलिए भी अमिता को लेकर इंदौर नहीं गया था कि अमिता कमज़ोर न पड़ जाये और अन्तिम समय में बेटी के मोह में अपना फ़ैसला बदल दे। क्या मां-बाप से दूर रहकर बच्चे अपना कैरियर बनाने के लिए लिखते पढ़ते नहीं हैं? क्या स्वयं मां-बाप को यह हक नहीं है कि भी अपने कैरियर के लिए बच्चों को अपने से दूर कर दें? उसकी
अपनी निग़ाह में यह फ़ैसला जायज़ था। फिर दो साल ही की तो बात है... देखते देखते निकल जायेंगे।
दीपक ने दीपिका के एडमीशन के लिए एक बेहद खूबसूरत परिवेश वाला स्कूल चुना था। वहां शानदार प्ले ग्राउंड था तो ख़ूबसूरत लान भी। सुन्दर व सुरुचिपूर्ण क्लास रूम, वैसी ही लाइब्रेरी। फ़ीस महंगी थी किन्तु सुविधाओं के अनुपात में अधिक नहीं। दीपक ने अपने को समझाया वे बच्ची को अपने से दूर इसलिए थोड़े नहीं रख रहे थे कि वे पैसे बचाना चाहते थे। इस स्कूल को वह बचपन में बड़ी हसरत से देखा करता था। पापा इस स्कूल की फ़ीस भर पाने की स्थिति में होते तो वह भी इसमें पढ़ चुका होता। अब उसकी बेटी इसमें पढ़े तो यह उसके लिए आत्मीक संतोष का विषय होगा।
कोलकाता में इससे भी बेहतर स्कूल थे किन्तु उन्होंने सुविधाओं का ध्यान रखते हुए घर के क़रीब जो स्कूल था, उसी में दीपिका को पढ़ाया था। इस स्कूल से तो इंदौर का स्कूल काफ़ी बेहतर था। यह कहा जाये कि दोनों की कोई तुलना ही नहीं हो सकती थी। एडमीशन के एक दिन पहले ही दीपक दीपिका को स्कूल ले गया था। स्कूल का परिवेश देखकर दीपिका खुश हो गयी थी। उसने चहकते हुए कहा था-'हां डैडी। इसी में पढ़ूंगी। बहुत मज़ा आयेगा।'स्कूल बस उसे पहुंचाने व ले जाने आयेगी। अब तक वह कभी स्कूल बस में नहीं चढ़ी थी, जो उसकी काफ़ी दिनों से तमन्ना थी। मोहल्ले में जब कुछ दूर के स्कूलों में पढ़ने जाने के लिए बस में चढ़ते तो दीपिका का जी उसमें चढ़ने के लिए मचलने लगता था किन्तु उसे जाना पड़ता था बाई या मम्मी-डैडी के साथ पैदल ही क्योंकि वह घर के काफ़ी पास था।
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मां के लिए दीपिका अब दीपक ही थी। वह कठोर अनुशासन जिसने दीपक को एक क़ाबिल व्यक्ति बनाया था, वह देखते ही देखते दीपिका पर लागू हो गया। वह समय पर उठकर मुंह धोने, नहाने, समय पर होमवर्क करने, साफ़ सफ़ाई से खाना खाने तथा अन्य कार्यों को अंज़ाम देने को विवश थी। उसे करेले की सब्ज़ी खानी पड़ती थी इंदौर में। यहां कोलकाता जैसी आज़ादी उसके लिए ख्वाब थी। वहां तो मम्मी डैडी कई बार कहते तब वह बिस्तर छोड़ती थी। हर काम अपनी मर्ज़ी से अंज़ाम देती। ओढ़ना तो वह ख़ुद कभी नहीं लपेटती थी। छुट्टियों के दिन नहाना या देर से ाहाना उसका अपना मामला हुआ करता था। जब मन करते वह पढ़ाई छोड़कर ड्राइंग बनाती थी। यहां इसकी आज़ादी नहीं थी। ड्राइंग खेल के समय में ही बनायी जा सकती थी। फ़िल्म तो वह शायद ही कभी देख पूरी पायी हो। इंटरवेल से आगे कभी नहीं बढ़ पायी। दादी जी का फ़रमान होता-'दीपिका सो जाओ नौ बज गये हैं। दीपिका अब बहुत खेलना हो गया, अब होम वर्क करो। यह क्या खाते समय कैसी आवाज़ निकाल रही हो? दीपिका दूध के ऊपर की मलाई भी पी जाओ। आज़ पूरा टिफ़िन क्यों नहीं खाया? अरे यह क्या, टिफ़िन स्कूल से आते ही बैग से बाहर क्यों नहीं निकाला?
दीपिका कदम-कदम पर अनुशासन से आहत होती चली गयी। पांव बिन पोंछे चादर पर रखना घोर अनुशासनहीनता थी। ऐसे में वह मम्मी को बहुत मिस करती। उसे याद आता कि वह खाने के लिए कितना ना-नुकुर करती थी। यहां तक कि उसे ठीक से न खिलाने के लिए मम्मी पापा में झगड़ा हो जाता और दोनों इसके लिए एक दूजे को दोषी ठहराते-डैडी कहते-'तुम्हें तो बेटी को बहला-फुसला कर खिलाना तक नहीं आता।'
मम्मी का ज़वाब होता-'आप ही क्यों नहीं खिला देते? यूं ही जबानी प्यार नहीं होता। धैर्य रखना होता है। कुछ करना धरना भी होता है।'
दोनों उसके खाने-पीने, उसकी आदतों, शरारतों को लेकर चिन्तित रहते और आपसे में लड़ते। एक दूसरे पर बेटी की उपेक्षा का आरोप लगाते। इन सबमें दीपिका को अच्छा सा लगता। अपने प्रति उनक फ़िक्र उसे अच्छी लगती। यहां तो दादी उसे कभी गोद में नहीं लेतीं। कभी प्यार से पुचकारा नहीं। वहां वह अब भी मां की गोद में समाने का मौका निकाल ही लेती थी। दिन भर बात-बात पर मम्मी को चुम्मी देती-लेती रहती। हरी सब्ज़ियां कभी न खाती। आइसक्रीम, कोल्डड्रिंग, पाप कार्न, मंच उसके फ़ेवरेट थे। यहां बेस्वाद हार्लिक्स पीनी पड़ती थी दूध में। सुबह नौ बजे तक तो वह शायद ही कभी सो पायी। वहां छुट्टियों में नौ बजे तक सोना उसके लिए आम बात थी।
आज दीपिका का बर्थ डे था। सुबह ही डैडी-मम्मी का फ़ोन भी आया था। दादी भी आज सुबह उसके प्रति कुछ नर्म रुख अपनाये हुए थीं। जब वह स्कूल बस में चढ़ने जा रही थी उसकी मनपसंद खाने की चीज़ों के बारे में पूछा था।
दीपिका के पंख उग आये थे। हालांकि बस से वह उतरी तो उसे याद आया कि दादी ने चाकलेट तो दिये ही नहीं। इसके पहले उसके बर्थ डे के रोज़ मम्मी ने ढेर सारे चाकलेट दिये थे कि अपने फ्रेंड्स को दे देना। खैर... उसने ख़ुशी ख़ुशी अपने दोस्तों रोहित, अमित, सुलभा, पिंकी और गज़ाला को अपने घर शाम को यह कहकर इनवाइट किया था कि आज उसका बर्थ डे है। उसकी बर्थ को पार्टी होती है घर में। अपने सबसे प्यारी मैडम शिखा से भी उसने चहक कर पूछा था-'मैडम आप आयेंगी न मेरी बर्थ डे पार्टी में? 'जवाब में उन्होंने उसके गाल पर प्यारी सी थपकी दी थी। दीपिका ने सोचा, शाम को जब वे उसके घर आयेंगी तो उसे पप्पी भी दे सकती हैं। मैडम उसे अपनी मम्मी जैसी लगती हैं एकदम स्वीट।
शाम को जब दीपिका घर लौट रही थी तो उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसके फ्रैंड्स आयेंगे पहली बार उसके घर और शिखा मैडम भी। वह केक काटेगी। उसकी फेवलेट चीज़ें बनीं होंगी जिसे वह सबको खिलायेगी और खुद भी खायेगी। हर साल तो ऐसा ही होता है। यह बात अलग है वहां फ्रैंडस् की संख्या ज्यादा थी, यहां बहुत नहीं है। लेकिन यह क्या? घर लौटने पर तो कोई विशेष तैयारी नहीं दिखी। न घर में गुब्बारे बांधे जा रहे हैं न फूल। चादरें, तकिये के खोल सब पुराने और लगभग गंदे। लग ही नहीं रहा था कि गेस्ट के आने की कोई तैयारी की गयी हो। खाना-पीना भी अभी तक बनना शुरू नहीं हुआ है। दादी ने स्कूल से लौटने के बाद वही सब कुछ करने को कहा जो रोज कहती है। उसे होमवर्क भी रोज़ की तरह ही करने को कहा गया। वह कुछ बोल नहीं पा रही थी। पूछ नहीं पा रही थी पार्टी के बारे में। यह क्या? अब तो सबके आने का समय भी हुआ जा रहा है। इधर, दादीजी ने दादादी से कहा-'सुनिये जी। पास की दुकान से वह पांच रुपये वाला केक लेते आइए। आज दीपिका का बर्थ डे है। फिर मैं इसके लिए पनीर, छोले, पूरियां व सिवई बनाती हूं।'
सुनकर दीपिका का दिल धक्-धक् करने लगा। उसे मितली सी आने लगी..तो क्या पार्टी कैंसिल? बर्थ डे पार्टी नहीं होगी? उसे याद आया दादीजी ने तो इसका ज़िक्र ही नहीं किया कि पार्टी भी होगी। तो क्या दादीजी उसका बर्थ डे सेलिब्रेट नहीं करेंगी। गाड-गाड,मेरी हेल्प करना लीज़। कोई मेरा फ्रैड न आये। तभी कालबेल बजी और ये क्या, दादीजी
ने दरवाज़ा खोला खोला तो पाया कि उसके स्कूल के पांच फ्रैंड हाज़िर थे। वे सब ग्रुप बनाकर एक साथ आये थे और उनके हाथ में एक बड़ा सा गिफ्ट का पैकेट था, जिसे उन्होंने मिलजुल कर ख़रीदा था। दादीजी को कुछ देर लगी उनके आने का कारण समझने में तब तक उन्होंने उसे हैप्पी बर्थ डे कहा।
दादीजी ने उन सबको बैठाया और पूछा कि क्या वे दीपिका के साथ पढ़ते हैं?इस बीच दादाजी लौटे तो सबके लिए दादीजी ने चाकलेट मंगाई। वे सब लौट गये चाकलेट खाकर ही। दीपिका रुआंसी थी। यह क्या तरीक़ा हुआ। दादीजी ने तो उन्हें कुछ खिलाया-पिलाया ही नहीं। क्या इस तरह की जाती है बर्थ डे पार्टी?उसने अपना गिफ्ट पैकेट भी नहीं खोला था कि इस बीच शिखा मैडम पहुंच गयीं।
उन्हें देखकर दादीजी को हैरत हुई। मैडम को भी कुछ अज़ीब सा लगा। यहां तो पार्टी का कोई संकेत नज़र नहीं आ रहा था। वे अपने साथ एक ख़ूबसूरत डाल लायीं थीं, जो उन्होंने दीपिका को हैप्पी बर्थ डे कहते हुए दिया था। दादीजी ने उनके लिए चाय बनाया। नमकीन के साथ दिया। मैडम ने झिझकते हुए पूछा-'क्या आपके यहां कोई प्राब्लम हो गयी है?'
-'क्यों? नहीं तो।'
-'आपके गेस्ट वगैरह नहीं आये अब तक।'
-'क्यों?'
-'बर्थ डे पार्टी थी न आज दीपिका की?'
-'नहीं तो..।'
-सारी। शायद समझने में कोई भूल हो गयी। दीपिका ने कहा था कि उसका आज बर्थ डे है.. उसी के बुलाने पर मैं आयी।
दादीजी को अब समझ में आया पूरा माज़रा। दीपिका ने सबको दिया था बर्थ डे पार्टी का न्यौता। इधर दीपिका ज़ोर ज़ोर से रोने लगी। शिखा मैडम ने जब उसे चुप कराने की कोशिश की तो उसका दुःख और बढ़ गया। उसे चुप न
होते देख दादी ने उसे डांट दिया तो वह दूसरे कमरे में चली गयी। इधर, शिखा मैडम को बहुत अफ़सोस हुआ कि उसकी वज़ह से ही उसे मासूम बच्ची को उसके जन्म दिन के दिन डांट खानी पड़ी। वे सारी-सारी कहती हुई लौट गयीं। उन्होंने दादी से यह ज़रूर कहा-'प्लीज़, उसे मत डांटिये।'
इधर, दादी उनसे माफ़ी मांग रही थी-'देखिए बच्ची की वज़ह से हमें शर्मिंदा होना पड़ रहा है। हमें इसने एकदम नहीं बताया था कि उसने किसी को इनवाइट किया है। हमसे बोलती तो हम पूरी तैयार कर लेते। प्लीज़ थोड़ी देर रुख जाइये कुछ बना देते हैं खाकर ही जाइये।'
दीपिका देर रात तक रोती रही। उसे बुखार भी हो गया था।
----------------------------------------------------------इस बीच अमिता भी इंदौर आयी। उसे दीपिका में काफ़ी सुधार नज़र आया। वह लड़की जो उसकी कोई बात एक बार में न सुनती थी अब वह हर काम तत्परता से करने लगी थी। सुबह जल्द उठ जाती। उसका शरारतें भी काफ़ूर हो गयी थीं। खाने-पीने में नखरे भी नहीं बचे थे। पहले तो यह नहीं खाऊंगी, वह नहीं खाऊंगी करती रहती थी। दीपक को भी लगा आख़िर मेरी मां ने जो अनुशासन मुझे दिया उसकी नींव बेटी में भी डाल ही दी।
चर्चा होती रहती थी कि दो साल बाद दीपिका फिर लौटेगी कोलकाता। इस बीच दीपक ने मां-बाप से कई बार कहा कि वे रिटायरमेंट के बाद उनके साथ ही चलकर रहने की योजना बनायें। फिर दीपिका कितना ठीक हो गयी है वरना वह तो एकदम ज़िद्दी व शरारती हो गयी थी।
दो साल बाद जब दीपिका की सालाना परीक्षाएं समाप्त हो गयीं और उसके कोलकाता वापसी के दिन क़रीब आये दीपक व अमिता उसे लेने आये। उस दिन जैसे पुरानी दीपिका का फिर पुनर्जन्म हो गया था। वह नौ बजे सोकर उठी थी। दादीजी के कारण उसमें आये सुधार के दावे उसने दिन भर में बुरी तरह ध्वस्त कर दिये थे। वह नहाई ही नहीं। करेले की भुजिया खाने से स्पष्ट इनकार कर दिया। गंदे पैर बिना पांव पोंछे ही वह बिस्तर पर बार-बार चढ़ती उतरती रही। तेज़ आवाज़ में देर रात तक टीवी देखती रही। अख़बार व पत्रिकाओं से मनपसंद हीरो हिरोइनों की तस्वीरें काट ली। अपने व्यवहार से दीपिका ने दादीजी को जता दिया था कि वह जेल में थी, जिससे अब वह आज़ाद है। अब उसे यहां नहीं रहना है इसलिए उसे कोई भय नहीं। वह अपने मम्मी-पापा के पास जा रही है और वैसे ही रहेगी जैसे वह चाहती है। उसने अगले दो दिन तक भी शरारतें की और कुछ बढ़चढ़कर दादीजी को दिखाया।
दादीजी को उसके बदल रुख पर पहले तो हैरत हुई फिर क्रोध आया लेकिन जल्द ही वे अपराधबोध से ग्रस्त हो गयीं। उन्हें समझ में आ गया था कि दीपिका का कायाकल्प का उसका प्रयास दीपिका के लिए महज महज सज़ा थी। उसे ताड़ते देर न लगी कि बेटे-बहू की नज़र में वह गिर जायेगी। यह तो अच्छा हुआ कि उन्होंने कोलकाता जाने के प्रस्ताव को अभी स्वीकार नहीं किया है। शायद बेटा अब यह आग्रह कभी नहीं करेगा।

साभार-प्रगतिशील वसुधा

Wednesday 7 April 2010

अभिज्ञात के रूप में कहानी का फिर एक तारा चमका है- संजीव

कोलकाताः अभिज्ञात के रूप में कहानी का फिर एक तारा चमका है। एक जीवंत कथाकार की पुस्तक 'तीसरी बीवी' के लोकार्पण में मैं खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। वे उम्र में छोटे हैं, लेकिन उनके अनुभव की एक बड़ी दुर्जेय दुनिया है जो उनके डेग और डग को विरल और विशिष्ट बनाता है। यह कहना है प्रख्यात कथाकार और हंस के कार्यकारी संपादक संजीव का। भारतीय भाषा परिषद सभागार में 6 अप्रैल 2010 मंगलवार की शाम अभिज्ञात के कहानी संग्रह 'तीसरी बीवी' का लोकार्पण करते हुए उन्होंने यह बात कही।
उन्होंने कहा कि 2004 में मैंने कोलकाता में 15-20 कथाकारों को इंट्रोड¬ूज करने में अपनी भूमिका निभाई थी।
उन्होंने कि मैं पूर्व वक्ता अरुण माहे·ारी के तर्कों को नहीं मानता कि अभिज्ञात ने घटनाओं को जस का तस धर दिया और अपनी ओर से कुछ कहने की कोशिश उनमें नहीं दिखती या कि कोई दिशा निर्धारित नहीं करते। पूर्व वक्ता हितेन्द्र पटेल की उन आशंकाओं को भी दरकिनार करता हूं कि किसी भी लेखक को अपनी महत्ता साबित करने के लिए दिल्ली से सर्टीफिकेट लेने की आवश्यकता है और ऐसे में मुमकिन है अभिज्ञात जैसे कथाकार की रचना अलक्षित रह जाये।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे भारतीय भाषा परिषद के निदेशक डॉ.विजय बहादुर सिंह की इस बात को कि 'लेखक की रचना में वह न खोजें जो उसने नहीं दिया है जो दिया है उस पर बात की जाये', आगे बढ़ाते हुए संजीव ने कहा कि साहित्य के तयशुदा मानकों से हटकर यह देखना चाहिए कि लेखक ने अपने बेस्ट अंदाज में क्या दिया है। दिगंत अनन्त हैं। लोग तो चिन्दियों से चित्र बना रहे हैं और उनकी प्रशंसा कर उनका सर्वनाश किया जा रहा है। अभिज्ञात को ऐसी वाहवाही नहीं चाहिए। मैंने उनकी दो कहानियां हंस में छापी हैं। उनकी कहानियों के जो दायरे हैं उनमें द्वंद्व के नये क्षेत्र, आस्था के नये बिन्दु हैं।
उन्होंने समकालीन कथासंसार पर कटाक्ष करते हुए कहा कि वे धन्य हैं जो प्रयोग के लिए प्रयोग और कला के कला का सहारा लेते हैं। पुनरुत्थानवाद फिर आ गया है जिसके परचम लहराये जा रहे हैं। नये कथाकारों की फौज़ आयी है। भाषा के एक से एक सुन्दर प्रयोग हो रहे हैं। अगर अपनी आत्ममुग्धता को सम्भाल लें तो बहुत है। अभिज्ञात की राह उनसे अलग है।
मेरे पास हंस में प्रकाशनार्थ रोज दस से बारह कहानियां आती हैं। भूमंडलीकरण का प्रकोप मुझ पर भी पड़ा है और कनाडा से लेकर स्पेन तक से फ़ोन आते हैं कि मुझे बताइये मेरी कहानी क्यों नहीं छपेगी। मैं विनम्र निवेदन करता हूं कि साहित्य कूड़ेदान नहीं है। इसमें युयुत्सा व घृणा के लिए जगह नहीं है। मैं कहता हूं साहित्य की शर्त पर आओ। लोग पूछते हैं
तो शर्त बतायें क्या शर्त है साहित्य की। मैं कहता हूं-एक ही शर्त है साहित्य की, वह है उदात्तता। वह नहीं है तो शर्त पूरी नहीं होती। अभिज्ञात ने धीमे अन्दाज में उधर कदम बढ़ाये हैं। धन्यवाद के पात्र हैं। क्रेज़ी फ़ैण्टेसी की दुनिया, मनुष्य और मत्स्यकन्या, देहदान जैसी कहानियां बिल्कुल निराले अन्दाज़ की कहानियां हैं। 'देहदान' कहानी में लाश को टुकड़े-टुकड़े काटकर बेच दिया जाता है और बता दिया जाता है कि लाश को चूहे खा गये।
संजीव ने कहा कि दलित, नारी, शोषण तक कहानी का दायरा सिमटा हुआ था। अभिज्ञात ने दायरे का विस्तार किया है। आस्मां और भी हैं। उनसे मुक्त नहीं हो सकते। पीछे मुड़ के मत देखिये। द्वंद्व, आस्था के नये दिगंत खोले हैं। नये अनछुए दिगंत खोले हैं।
कहानी में बिम्ब कैसे बनते हैं और किस प्रकार के निर्वाह से वे अलंकरण नहीं रह जाते इसका निर्वाह बड़ी कला है। इससे भाषिक संरचनाएं दीर्घजीवी हो जाती हैं। अभिज्ञात जी ने विज्ञान को लेकर मिथ बनाया है। कैसे मिथ बनता है यह उनकी कहानी में देखने लायक है।
कार्यक्रम की शुरुआत हितेन्द्र पटेल के वक्तव्य से हुई। उन्होंने कहा तीसरी बीवी की कहानियों पर कहा कि वे कई बार असुरक्षित परिवेश में रह रहे लोगों की ज़िन्दगी से अपनी कहानियां एक संवेदनशील तरीके से उठाते हैं। 'उसके बारे में' कहानी ऐसी ही कहानी है। जिसमें दर्द के रिश्ते की शिनाख्त की गयी है। असुरक्षित होते लोगों की बेचैन कहानियां ऐसी हैं जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होनी चाहिए। जबकि 'क्रेजी फैंटेसी की दुनिया' इससे भिन्न एक क्लासिक फलक वाली है। इन कहानियों में वह तत्व है जिसे निर्मल वर्मा के शब्दों में 'मनुष्य से ऊपर उठने का साहस' कहा है।
जीवन सिंह ने कहा कि क्रैजी फैंटेसी की दुनिया में कहा गया है कि शासन बदलता है लेकिन तंत्र नहीं बदलता। यह वस्तुस्थिति की गहरी पड़ताल से उन्होंने जांचा परखा है। लेखक जिन स्थितियों में जी रहा है उससे लिखने की रसद कैसे प्राप्त करता है उसका उदाहरण कायाकल्प जैसी कहानियां हैं। अभिज्ञात की 'जश्न' जैसी कहानियों में एक विद्रोह है, जो थमना नहीं चाहता है, नजरुल की तरह-'आमी विद्रोही रणक्रांत'।
अरुण माहे·ारी ने कहा कि 'तीसरी बीवी' संग्रह की कहानियां पढ़कर राजकमल चौधरी की याद आती है। इन्हें पढ़कर एक गहरा व्यर्थताबोध, डिप्रेशन पैदा होता है। सब कुछ व्यर्थ, कुछ भी सकारात्मक नहीं है। कुछ कहने की इच्छा न हो तो बस कच्चा माल इकट्ठा होता रहता है। हिन्दी कहानी परिपक्व हो चुकी है। उदय प्रकाश जैसे कुछ कथाकार हैं जिन्होंने अछूते कोणों को छुआ है।
संजीव जी ने कार्यक्रम के दूसरे चरण में अपनी रचना प्रक्रिया, अपने जीवन अनुभव व प्रेरक तत्वों की खुलकर चर्चा की और श्रोताओं के सवालों की जवाब भी दिये। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ बंगला कवि अर्धेन्दु चक्रवर्ती ने की।

जीवनस्पर्श की कहानियां: तीसरी बीवी

-संजय कुमार सेठ/पुस्तक वार्ता ------------- हृदय’ और ‘बुद्धि’ के योग से संयुक्त ‘अभिज्ञात’ का ज्ञात मन सपने देखता है। ये सपने भी रो...