Saturday 17 April 2010

सामाजिक विसंगतियों का आख्यान

समीक्षा
-लोकेन्द्र बहुगुणा
अभिज्ञात के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह 'तीसरी बीवी' में संकलित कहानियां वर्तमान समाज के जीवन मूल्यों, सपनों और विसंगतियों की जोर आजमाइश का आख्यान हैं। अभिज्ञात ने अपने आसपास घट रही रोजमर्रा की घटनाओं को अलग-अलग नजरिये से अपनी कहानियों में चित्रित किया है।
संग्रह में विभिन्न समय पर लिखी गयी 25 छोटी-बड़ी कहानियां हैं, जिनमें कई विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुई हैं। समाज में हो रहे बदलाव पर लेखक की पैनी नजर है और उसे वे जहां-तहां से निकाल कर पाठक के सामने लाते हैं? किस्सागोई के हिसाब से वे कहानियां पाठक को ज्यादा आकर्षित करती हैं जो आत्म कथ्यामक या संस्मरणात्मक अंदाज में लिखी गयी हैं लेकिन कई कहानियों में सशक्त विषय- वस्तु के बावजूद सपाटबयानी है लेकिन इन सीमाओं के बावजूद इसमें दो राय नहीं कि कहानियां सामाजिक सरोकार के वे सवाल छोड़ जाती हैं जिनसे बचने की कोशिश तमाम दावों के बावजूद जारी है।
संग्रह की सबसे लंबी कहानी 'क्रेज़ी फैंटेसी की दुनिया' और सबसे छोटी 'बंटवारे' हैं जो अपने अपने ढंग से आज के 'सच' को सामने लाती है। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से 'क्रेज़ी फैंटेसी की दुनिया' को अगर संग्रह की सबसे बेहतर कहानी कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। व्यवस्था की हकीकत को कहानी के जरिये जिस तरह पेश किया गया है वह काबिलेगौर है। कहानी का नायक एक वैज्ञानिक है, जो पारिवारिक एवं सामाजिक जिम्मेवारियों से उदासीन अन्वेषण की अपनी दुनिया में मस्त रहता है। उसे अपने पारिवारिक दायित्वों का तब बोध होता है जब उसकी पत्नी का देहांत हो जाता है और एकमात्र संतान पुत्री की देखभाल में उसे माता और पिता दोनों की भूमिका निभानी पड़ती है। पुत्री को मां की कमी और अकेलापन न खले इसके लिए वह कहानियां गढ़ने लगता है और धीरे-धीरे उसे भी इस लेखन में मजा आने लगता है। ऐसे ही एक प्रयास में वह एक अजीबोगरीब चरित्र की कल्पना करता है। वह अपनी कहानियों में क्रैजी फैटेंसी नाम के एक खास चरित्र गढ़ता है जो मन चाही शक्ल अख्तियार करने में माहिर है। उसकी ये कहानियां और पात्र क्रैजी फैंटेसी पाठकों द्वारा इस कदर पसंद किये जाते हैं कि वे इस कल्पना को हकीकत मानने लगते हैं। ऐसे वक्त में मुल्क में एक अजीब तरह की बीमारी फैलती है और लोग इसकी वजह क्रैजी फैंटेसी को बताने लगते हैं। पता चलता है कि यह बीमारी एक खास तरह के विषाणु से फैलती है और यह विषाणु किसी विकसित मुल्क की देन है। इस फैंटेसी के जरिये आधुनिक समाज व तंत्र की विसंगतियों को दिलचस्प अंदाज में उजागर करने की कोशिश की गयी है। वास्तविकता और कल्पना की यह मिलावट अपने निहितार्थ के कारण आधुनिक समाज की आशा-आशंकाओं और संभावनाओं के व्यापक विस्तार का परिचय देती है। दरअसल कुछ समय पहले जब पहले बर्ड फ्लू और बाद में स्वाइन फ्लू( जिसका असर मुल्क में अब भी बरकरार है ) के बारे में वैश्विक स्तर पर सूचनाओं के आदान- प्रदान और जन जागरण की मुहिम के दौरान समाज के विभिन्न स्तरों पर इस तरह के सवाल उठे थे। वैज्ञानिक गतिविधियों और प्रशासनिक व्यवस्था से जड़े लोगों में यह सवाल भी उठा था कि क्या इस तरह की 'महामारियों'के बारे में लोगों को जागरूक बनाने की जगह आतंकित तो नहीं किया जा रहा है।
संग्रह की 'तीसरी बीवी','फूलबागान का सपना'और 'जश्न' जैसी लघु कहानियां रोजी-रोटी के अवसरों की दृष्टि से सिमटते गाँव फैलते शहरों के अंधेरे पक्ष के कटु सत्य को सामने रखती है। लिहाजा वे पाठक के मर्म को बेधती हैं। हालांकि ये कहानियां कोलकाता महानगर और उसके आसपास के परिवेश में केंद्रित हैं लेकिन ये दृश्य मुंबई, दिल्ली या ऐसे ही किसी महानगर के परिवेश की भी हो सकती क्योंकि कमोबेश कारक और हालात सभी जगह एक से हैं। हालांकि 'एक हिट भोजपुरी फिल्म की स्टोरी' जैसी कहानियों के जरिये यह अहसास कराने की कोशिश भी की गयी है कि सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है, बेहतरी की संभावनाएं एकदम खत्म नहीं हुई हैं।
पुस्तक : तीसरी बीवी
लेखक : अभिज्ञात
प्रकाशक : शिल्पायन, दिल्ली
मूल्य : 150 रुपये
पृष्ट : 120

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