Tuesday 13 April 2010

शिनाख्त नहीं

कहानी
लाश अब तक पड़ी थी। दिन के ग्यारह बज रहे थे। रात किसी समय उसका क़त्ल हुआ था। बेदर्दी से उसके जिस्म को किसी धारदार हथियार से ज़गह-ज़गह गोद दिया गया था। लाख रुख़साना की थी। उसकी मां अपने घर के दरवाज़े की ओट से रह-रह कर झांक लेती थी। लाश के पास आकर बैठे, उसके लिए रो सके, इतना साहस उसमें नहीं था। रुख़साना के पिता और उसके भाई तो तड़के ही हत्या की ख़बर पा घर से निकल भागे थे। कहीं पुलिस ख्वामख्वाह उन्हें इस मामले में न लपेट ले। शिनाख्त की बात तो आयेगी ही। पूछताछ से गुज़रना पड़ेगा। तिल का ताड़ बनते देर क्या लगती है। पुलिस के बरताव का क्या ठिकाना? ज़िन्दा थी रुख़साना तो उससे पुलिस ने मुख़बिरी का काम लिया। किसी ने अपना हिसाब चुकता कर लिया होगा। भाई का पहले ही यह मानना था। जो वह कहता था वही हुआ।
लाश पड़ी थी। रोने वाला कोई न था। जिनसे इधर छह साढ़े छह महीनों में अपनापा हुआ था वे अवैध निर्माण हटाओ अभियान की चपेट में आकर जहां-तहां बिखर गये थे। पीडब्ल्यूडी और कोलकाता नगर निगम की गाड़ियां उनकी झोपड़पट्टियों का नामो-निशान मिटा चुकी थीं। इन्हीं झोपड़पट्टियों में से एक में साढ़े छह महीनों से रह रही थी रुख़साना, जो अब मरी पड़ी थी।
शब्बीर सुबह से इस गली के तीन फेरे लगा चुका था। तिरछी निग़ाहों से वह लाश को देखता गया था। आख़िर रुख़साना ने उससे मुहब्बत की थी। आज भी उसकी देह की गर्मी उसे रह-रह कर महसूस होती है तो वह रोमांचित हो उठता है। दस दिन पहले एक दफ़ा देर रात को उसक झोपड़पट्टी में घुसा था। रुख़साना ने उसे धकिया कर निकाल दिया था। उसका कहना था वह अपनी बेगम के पास जाये। दूसरे से जब निक़ाह पढ़ ली तो अब क्या वास्ता रहा..? अपने अजन्मे बच्चे की कसम उसने दी थी। भारी मन से वह लौट आया था। उसका दिल जानता है वह ज़िस्मानी सुख के वास्ते रुख़साना के पास नहीं गया था। शब्बीर उस रात बहाने से उसके तकिये के नीचे सौ-सौ के दस नोट दबा आया था। उसका अपराध बोध तब और बढ़ गया था जब दूसरे ही दिन वे नोट एक बच्चे के हाथों वापस लौट आये।
मां भी कभी-कभार देर रात को रुख़साना की झोपड़पट्टी में निकल आती और बेटी से लिपट कर घंटों रोती। मुंह में कपड़ा ठूंस लेती ताकि उसकी हिचकियों की आवाज़ें रात के सन्नाटे में सुनायी न दें। लेकिन इतना भर ही नहीं था। बेटी ने ईद की सिवइयां तक क़बूल नहीं की थी। रुख़साना का कहना था जब दुनिया के सामने नहीं दिया तो वह क्यों ले..उसे दया नहीं चाहिए।
ग़लती क्या थी उसकी.. दोनों ही परिवार शब्बीर और रुख़साना के निक़ाह को तैयार थे। मंगनी की रस्म भी अदा हो चुकी थी। निक़ाह से पहले छिप-छिपाकर मिलने लगे थे। कदम बहके तो रुख़साना मां बनने को आयी। बस यही कहर बरपा। शब्बीर के घरवालों का कहना था किस-किस को सफ़ाई देते फिरेंगे कि औलाद हमारे शब्बीर की ही है। निक़ाह के छह महीने में तो किसी को औलाद हो नहीं जाती। मोहल्ले भर को उसका निकाह टूटने की खबर उसके पेट से होने की ख़बर के साथ ही मिल चुकी थी। हर शख्स उसे बाद में देखता और उसके पेट को पहले जिसमें अभी हल्का सा उभार तक नहीं आया था। हर निग़ाह उसे आरे की तरह चीर जाती। जिस दिन शब्बीर का निक़ाह किसी और से हुआ उसी दिन एक डाक्टर से मिलकर रुख़साना ने गर्भ गिरवा लिया। फ़ीस में मंगनी की अंगूठी उतारकर डाक्टर को दे दी थी। उसके घरवालों को ख़बर उस समय हुई जब वे अंगूठी वापस करने की सोचने लगे थे। उन्होंने इतना हंगामा किया कि सबको इसकी ख़बर हो गयी।
पिता, भाई लोक लाज से पहले शर्मसार थे। बच्चा गिरा देने की घटना को बिरादरी की पंचायत ने भी बड़ा गुनाह माना और उसे घर से निकाल देने का हुक्म सुनाया। घर वालों ने तय कर लिया उसका छुआ पानी नहीं पीयेंगे। उसका मरा मुंह नहीं देखेंगे। वरना उनकी अपना जीना भी दूभर हो जाता। और सचमुच जब वह मरी तो अपना मुंह छिपाकर भाग खड़े हुए। नफ़रत से नहीं भय से। उसके बारे में उनके अन्तिम ख़याल थे बड़ी अहमक थी कमबख्त। इसे मरने की और जगह नहीं मिली कायनात में। इसी गली में मरना था।
घर से निकाले जाने के बाद भी तो रुख़साना ने मोहल्ला नहीं बदला था। एक झोपड़पट्टी में शरण ली थी जहां दारू की अवैध ठेक वह चलाती थी। जिसकी आड़ में पुलिस ने उससे मुख़बिरी करवायी तो उसे किसी हद तक सुरक्षा भी दी थी। भूखों मरने की नौबत से बचा लिया था, लेकिन दो दिन पहले वह झोपड़पट्टी उजाड़ दी गयी थी। रात की ठंड में वह रेलवे स्टेशन पर देखी गयी थी। फिर अपने मां-बाप के घर तक पहुंचने वाली गली में मरी हालत में पायी गयी। उस पर क्या गुज़री किसी को इसकी खबर न थी। पर आख़िरकार कोई उसकी लाश की शिनाख्त को तैयार नहीं हुआ। पुलिस भला उसे क्यों पहचाने? शाम को लावारिस लाश ढोनेवाला तिपहिया वैन लेकर डोम आया और उसे उठा ले गया। थाने में एक अनजान युवती, उम्र 20--22 साल की अस्वाभाविक मौत का मामला दर्ज कर लिया गया। शब्बीर ने यह सुना तो उसकी आंखें डबडबा आयी थीं।
तीसरे दिन मामला रफ़ा-दफ़ा होने की ख़बर पाकर रुख़साना के पिता व भाई घर लौटे थे। वे चैन की नींद सोये। बोझ हल्का हुआ। रुख़साना की मां ने अरसे बाद ऐसे मौके पर मुंह में कपड़ा नहीं ठूंसा था, वह हिचकियां ले लेकर रोयी थी देर रात तक। मोहल्ले में किसी ने उसके रोने की वज़ह नहीं पूछी।
साभारः वागर्थ

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