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Tuesday, 13 April 2010
मुक्ति
कहानी
सर्दी शुरू ही हुई थी। मध्य एशिया के साइबेरिया से अपने तमाम दोस्तों के साथ उड़कर आया था ग्रे हंस। बल्लभपुर की झील में उतर ही रहा था कि गोली लगी। वह गिरा तो लहू लुहान था। वन्य प्राणियों से हितों के संरक्षण की आवाज़ बुलंद करने वाले स्वयं सेवी संगठन ने न सिर्फ उसका बचाव किया बल्कि उस शिकारी को भी पकड़ लिया जिसने उसे अपना निशाना बनाया था। शिकारी को न सिर्फ़ पुलिस के हवाले किया गया बल्कि उसके ख़िलाफ़ थाने में एफआईआर भी दर्ज़ करायी गयी। संस्था ने थाने में जो अभियोग दायर किया था उसके मुताबिक़ पश्चिम बंगाल के वीरभूम की झीलों में सुदूर साइबेरिया मध्य एशिया से पंछी आते हैं। यहां अण्डे देते हैं। यहीं उन्हें सेते भी हैं। उनके चूजे धीरे-धीरे उड़ना सीखते हैं। और जब तक सर्दियां ख़त्म होती हैं वे परिवार उड़ जाते हैं और मूल स्थान की ओर। विदेश के बाज़ार में इन पंछियों की अच्छी ख़ासी क़ीमत है सो इन पंछियों को पकड़ने की फ़िराक़ में पंछी तस्करों का पूरा गिरोह सक्रिय है। उनके अण्डे चुरा लिये जाते हैं। उन्हें अन्य पंछियों से सेवाकर उनके चूजों को बेच दिया जाता है। बड़े पंछियों को एक ख़ास तरह की गोली उनके दाएं हिस्से में मारी जाती है। जख़्मी हालत में वे शिकारी की गिरफ््त में आ जाते हैं। ठीक हो जाने के बाद उन्हें भी बाज़ार के हवाले कर दिया जाता है। बिहार के दुमका में इन पंछियों की ख़रीद फ़रोख़्त का लम्बा चौड़ा बाज़ार है। वहां से ख़रीद कर उन्हें पटना ले जाया जाता है। पटना से वे विदेश भेजे जाते हैं। चूंकि मामला दो राज्यों का हो जाता है इसलिए वन विभाग द्वारा इन पर रोक लगाने की कोशिश कर भी विफल ही रहती है। कई कानूनी अड़चनें भी आती हैं।
मामला शुरू हुआ। शिकारी अंतरराष्ट्रीय गिरोह से जुड़ा था सो निपटने की कोशिश शुरू हुई। हंस को पहले तो वनविभाग में इलाज के लिए भेजा गया। अदालत में पड़ने वाली तारीख़ों में बतौर सबूत के हंस को पेश करने की जरूरत अदालत ने महसूस की। इसलिए स्वस्थ हो जाने पर भी उसे मुक्त नहीं किया गया। पेशियों का सिलसिला सवा दो साल चलता रहा। हंस लगातार क़ैद भुगतता रहा। मुकदमा ठोंकने वाली संस्था के पदाधिकारियों पर शिकारी गिरोह का ऐसा जादू चला कि गवाह मुकर गये। पुलिस शिकारी को ही बचाने में लगी रही। अदालत ने आख़िरकार अपना फ़ैसला सुना दिया। शिकारी गवाहों और सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया। उसकी एक वज़ह तो यह रही कि हंस के जख़्म महीनों पहले ही सूख गये थे। अदालत में अपने जख़्मों के बारे में स्वयं हंस कुछ कह नहीं सकता था।
अदालत ने वन विभाग को आदेश दिया कि हंस को मुक्त कर दिया जाये। फ़ैसले की रात वन विभाग के कार्यालय में शानदार दावत हुई। दावत में शिकारी, पुलिसवाले व वनविभाग के अधिकारी शामिल थे। पैग पर पैग खाली होते गये। उनकी प्लेटों में हंस का तला हुआ नर्म व लज़ीज गोश्त था, जिसे बड़े चाव से खाया जा रहा था। दावत के दूसरे दिन पूरे विश्वास के साथ रिपोर्ट फ़ाइल कर दी गयी कि हंस को मुक्त कर दिया गया है।
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साभारःकादम्बिनी
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