-संजय कुमार सेठ/पुस्तक वार्ता
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हृदय’ और ‘बुद्धि’ के योग से संयुक्त ‘अभिज्ञात’ का ज्ञात मन सपने देखता है। ये सपने भी रोचक, उत्तेजक, मारक और दिल दहला देने वाले हैं। यह लेखक का पहला कहानी-संग्रह है ‘तीसरी बीवी’ जिसमें कुल छोटी-बड़ी 25 कहानियां120 पृष्ठों में पसरी हुई हैं। यह संकलन रचनाकार की रचनादृष्टि को समझने का अवसर देती है। अपने सृजनकर्म में ‘अभिज्ञात’ बदलते हिंदुस्तान की धधकते-धड़कन को अपने पाठकों को सुनाते हैं। भारत का वही परिदृश्य नहीं रह गया जो 25-30 वर्ष पहले था। गांव, शहर, विकास, मूल्य, घूसखोरी, भ्रष्टाचार आदि की जटिलताओं में लगातार वृद्धि हुई है। ‘इण्डिया शाइनिंग’ की नई पीढ़ी हिंदुस्तान की खाती-पीती और अघाती संस्कृति को महत्त्व देती है।‘पहलवान का बेटा पहलवान’ नहीं होता विज्ञानकी इस ‘थ्योरी’ को उग्रपूंजीवाद ने नकार दिया है। वह लोगों को विज्ञापित कर-करके बताता है कि देखो! पूंजीपति का बेटा ही पूंजीपति होगा। इस नई पूंजीवाद के स्वार्थी रक्षक हैं कोड़ा, तेलगी, पं.सुखराम, पप्पू यादव और रामालिंगम् राजू जैसे लोग। यही लोग आधुनिक भारत के कर्णधार है। इन्हीं के दल-बल पर हिंदुस्तान की समेकित संस्कृति और गंवई सहजता नष्ट-भ्रष्ट हो रही है। भारत में एक दौर1960-70 का था, जिसमें राजनैतिक, सांस्कृतिक गतिविधियों एवं साहित्य के बल पर जन पक्षधरता की वकालत की जाती थी। इस युगबोध के लोग कमजोरों, गरीबों और उपेक्षितों की लड़ाई केलिए जीते-मरते थे। किंतु 1990 के बाद,मंडल, कमंडल और भूमंडलीकरण ने भारतीय जनमानस में ‘सपने’ देखने और दिखाने का जज़्बा पैदा किया। ‘एमएनसी’ बिल्कुल नई मल्टीनेशनल कंपनी के आने से रोजगार बढ़ा,लेकिन उस अनुपात में नहीं जिस अनुपात उसने लोगों को सपने दिखाए थे गरीबी मिटाने के। कार्पोरेट कृषि, मॉल्स, मैक्ड़ी और मेट्रो कल्चर ने इधर भारतीय सामाजिक संरचना में हलचल पैदा की। इस हलचल से भारत का मध्यवर्गीय समाज उद्वेलित हुआ लेकिन ‘हाशिये’ का सामाजिक जीवन स्थिर और ग़लीज है। भारतीय समाज का यह उत्पीड़ित समूह मौसम की मार से पस्त है और कु-विकासनीतियों से बेहाल है। इन्हीं परिवर्तनों को ‘अभिज्ञात’ चित्रों एवं संकेतों के माध्यम से अपने कथा का आधार बनाते हैं। वे अपनी कहानियों में दिखाते हैं कि ‘बंगाल’ कभी नवजागरण का प्रतीक था। रोजगार के वहां अकूत संसाधन थे। ‘मिले’ आधुनिक मंदिरनबी, इन्हीं मंदिरों से व्यापार के नए-नए ‘बिजनेस ताइकून’ पैदा हुए। किंतु एक आम भारतीय का जीवन नरक बन गया। इस संग्रह की बानगी कहानी ‘तीसरीबीवी’ है। इस कहानी के केंद्र में ‘औद्योगिक कचरे’ पर पलने वाला समाज का चित्राण है। कहानी में ‘बूढ़ा नूर’ और ‘हबीब’ का जीवन बद से बदत्तर है। तंगी और अभाव से नूर कराह रहा है। इसमें नूर की बेटी का आना‘कोढ़ में खाज’ जैसा है, जिसे उसका मरद मारकर मैके भेज देता है। नूर अपनी बेटी को स्वयं हबीब के घर पहुंचा देता है क्योंकि वह उसकी परिवरिश करने में अक्षम है। हबीब के पास पहले से दो पत्नियां मौजूद थीं। हबीब कचरे पर पलने वाले लोग के बीच साहूकार जैसा है, किंतु उसकी भी वास्तविक हालत खराब है। वह जेल में बंद है। उसकी नई बीवी घर में आ चुकी है। ‘अभिज्ञात’ इस भयावह स्थिति का वर्णन करते हैं। वे उसपरिवेश की दारूण दशा को उभारते हैं, जहां नूर और हबीबी जैसों का समाज पलता है। यथा ‘खांव-खांव खांसने की आवाज घर-घर से उठती थी तो अनवरत क्रम पाड़े के कोने-कोने की चीजों को उलट डालने को व्यग्र-सा जान पड़ता था। कच्ची भित्तियां कांपती-सी लगतीथीं और टुटहे नाममात्र के दरवाजों, खिड़कियों,छप्परों और दरकी दीवारों से हवा का ठंडापन उनकी नाक और सीने में गिजगिजे मोम-साव्याप्त था, जो खंखारने और नाक सुकड़ने की क्रिया को रसद पहुंचा रहा था।’’ (पृ. 38) लेखककी यही पैनी दृष्टि ‘उसकी गरीबी’ ‘फूलबागान का सपना’ जैसी कहानियों में भी दिखती है। यहां बल अभाव के दर्शन पर नहीं है, बल्कि‘उस ‘व्यवस्था’ पर है जिनसे ‘खड़दह’ जैसा परिवेश लगातार बन रहा है। यह एक वैचारिक प्रतिबद्ध शहर की कथा है। गरीबी की राजनीति करने वाले, ये छद्म मार्क्सवादी सोनागाछी, चिड़ियामोड़, फूलाबगान, टीटागढ़, खड़दह जैसे मुहल्ले बसाते हैं। रचनाकार कविता के ढब पर लघुकथाएं रचता है। ये कथाएं गंभीर घाव करती हैं। इनका गठन संक्षिप्त है लेकिनउसकी मारक क्षमता तिलमिलाने वाली है।इस दृष्टि से ‘जश्न’, ‘मुक्ति’, ‘बंटवारे’,‘तरकीब’, ‘साख की कीमत’, ‘शिनाख्त नहीं’,‘कितना खराब’, जैसी कहानियां प्रमुख हैं। लघुकथा ‘तरकीब’ गांव के विद्वान पंडितों परकेन्द्रित है। समय के प्रवाह में ब्राह्मण गरीब होते हैं किंतु अपनी ‘कूटभाषा’ के बल परपुनः अमीर होकर समाज में अपनी प्रभुता स्थापित करते हैं। लेखक बताता है कि आज भी हिंदुस्तान में यह संप्रभु वर्ग अपनी कुशल ‘सामाजिक ताकत’ और ‘कूटनीति’ के दमपर समाज में सबका ‘पूज्य’ बना हुआ है।बहुतों के लिए आज भी गांव, गरीबी और पिछड़ेपन का पर्याय है। अभिज्ञात इस धारणा को तोड़ते हैं। वे गांव की सहजता, तिकड़म,जीवतंता और कलाप्रियता को उजागर करते हैं। ग्रामीण अंचल पर केंद्रित ‘तोहफा’,‘पड़ोसन’, ‘मुन्नीबाई’ बेजोड़ कहानी है। क्रमशःरोजगार के संसाधन शहर केंद्रित हो रहे हैं। ऐसे में गांव केवल स्मृतियों में है या तो‘पिकनीक स्पॉट’ के रूप में। ‘मुन्नीमाई’ की ‘कहाइन’ ठाकुरों के घरों में राज करती है।गर्मी के दिनों में मुन्नीबाई की पूछ बढ़ जाती है। मुन्नी पर ‘कब्जा पाने की परिवारों में होड़ सी रहती’ (पृ. 117) है। पूरे ठाकुर घराने में मुन्नीबाई की ठसक है। वह नखरे करती है, और अपनी देह दबवाती है, तथा उनकी नमकीन,बिस्कुट भी खाती है। अपने ‘हाड़तोड़ जांगर’के बल पर। शहराती बहू-बेटियों को आराम चाहिए और काम करने वाली गांव में बाई केवल मुन्नी है। गांव में मुन्नी के किस्से बहुत हैं। इसकी दरियादिली और कलाप्रियता का पता तब चलता है, जब कलाकार बहू वापस शहर जाने लगती है। मुन्नी पैसे न लेकर बदले में ‘एक खूबसूरत शाल गायिका बहू की तरफ बढ़ा दिया ‘भगवान तुम्हें तरक्की दे।मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है बहू। फूलो-फलो। फिर जल्द आना तुम्हारा इंतजार रहेगा।’ (पृ.120)। यह है अनपढ़, गवई बाई की कलाकार बहू को दिया गया प्यार, सम्मान और विदाई। इस प्रकरण पर गांव के कई लोगों की आंखें नम होती हैं। यह कहानी गांवों की रागात्मक संबंधों की तासीर को जिंदा रखती है। आधुनिक व्यक्ति जटिलताओं का पुंजहै। बाजार, मीडिया और तकनीकी क्रांति ने मानव जीवन को एकतरफ सुविधाभोगी बनाया तो, वहीं दूसरी ओर वह मनुष्य को आत्मकेंद्रित,स्वार्थी, दंभी और लूटेरा बना दिया है। मानव की स्वाभाविक गतिशीलता का क्षरण हो रहा है।व्यक्ति मनुष्यता का धर्म खोकर प्रतियोगी बनगया है। ऐसे में पारिवारिक संबंधों की जटिलताएंभी बढ़ी हैं। नई-पीढ़ी व पुरानी पीढ़ी में द्वंद्व,दाम्पत्य जीवन का उदासीपन, बच्चों का भावनात्मक रूप से कमजोर होना, प्यार जैसे सार्वभौमिक मूल्य ‘अर्थ’ के अनर्थ में बदल गएहैं। जाति की जकड़न ढीले और कड़े हुए हैं।लेखक इन सभी जटिलताओं को कथा बनाता है। इस दृष्टि से देखें तो ‘कायाकल्प’, ‘कुलटा’,‘शिनाख्त नहीं’, ‘फिर मुठभेड़’, ‘उसके बारे में’‘कपड़ों में बसी याद’ इत्यादि उत्कृष्ट कहानियां हैं। ‘औलाद’ कहानी की मां अपने कैरियर के लिए अपने नवजात शिशु की हत्या चाहती है क्योंकि वह मानती है ‘मैंने इसे मजबूरी में जन्म दिया है महज अपनी जान बचाने के लिए। मैं अपने प्रेमी को खो चुकी हूं। अब नौकरी से हाथ नहीं धोना चाहती और ना ही लोगों के तानेसुनने के लिए तैयार हूं। मैं इस बच्चे से छुटकारा पाना चाहती हूं।’ (पृ. 13)। यह कथा एयर हॉस्टेस नायिका की है, साथ ही एक संवेदनशील डॉ. नरेश की भी है। डॉ. नरेश बच्चेको बचाना चाहता है किन्तु ‘नर्सिंग होम’ का मालिक पैसों के दबाव में बच्चे को अन्य डॉ. से खत्म करवा देता है। बच्चे के खात्मा सेनिःसंतान दम्पति उदास हैं तो नरेश का शरीर प्राणशून्य है। ‘कैरियर’ और अकूत ‘धन’ की हवस ने आधुनिक मनुष्य का जीवन नरक बना दिया है। अभिज्ञात बार-बार अपने कहानी में इसी कोण को उठाते हैं। इस कृतिकार की भाषिक संरचना में नयापन है। छोटे-छोटे वाक्य विन्यास औरनपे-तुले शब्दों का चयन ‘कथ्य’ की आक्रामकता को बढ़ाते हैं। कहानी संकेतों, बिंबों, प्रतीकों में धीरे-धीरे आकार लेती है। कहानी में युगबोध ही‘नायक’ है। लेखक अपने कहानीपन के लिए अंग्रेजी, अरबी, हिंदी, बांग्ला, देशज शब्दों का घाल-मेल करता है। कहा इन, अहिराने, बाई,पाडे, मठ, गदही, पट्टे, कमरेडवा, भड़भुजापन,गोंजने, बचवा इत्यादि बंगाली और भोजपुरी मिश्रित शब्द-संतुलन से लेखक का यथार्थ-बोध कहीं खंडित नहीं होता है। ‘अभिज्ञात’ ‘फ्लैशबैक टेकनीक’ का उपयोग अपनी कहानियों में अधिकांशतः करते हैं। कहानी के बीच-बीच में संकेत, सामासिकता, गवेषणा, वर्णन शैलियों का बखूबी उपयोग हुआ है। इन शैलियों के कारण कहानी में ‘बहु-आयामिता’ और ‘अर्थ-सघनता’ बढ़ जाती है। प्रकृति और मनुष्य केबीच साहचर्य आवश्यक है। इनके न होने से पर्यावरण संकट गहरा सकता है। इस संकट की भाषिक व्यंजना की एक रवानगी देखिए-‘कछुओंके साथ उनका संबंध इतना प्रगाढ़ होता गया कि वे उनकी भाषा किसी हद तक समझने में कामयाब होने लगे थे। यह साढ़े चार सौ साल की उम्र का कछुआ था। वह उनसे मदद मांग रहा था। उसका कहना था कि समुद्र में तेल निकालने के जो प्रयास किए जा रहे थे उससे समुद्र की भारी क्षति होने जा रही है। समुद्र के पास अथाह संपदा है किंतु उसे प्राप्त करने केतरीके मनुष्य ने नहीं सीखे हैं। उन्हें सीखना होगा। जिस प्रकार से तेल निकालने के प्रयास किए जा रहे हैं स्वयं कछुए की जाति भी खतरेमें पड़ने जा रही है और मछली सहित अन्यजीवन भी, जो समुद्र में रहते हैं। (पृ. 60-65)बढ़ी हो सकती है? यह ‘अभिज्ञात’ ही जाने।इन कथाओं के कुछ बिंदु ऐसे थे, जो कथानक में विस्तार पाते तो उसकी वेदना पाठकों को और झकझोरती। लेखक की ‘स्त्राी विषयक दृष्टि ’पुरुष के नजरिए से देखा गया है। ‘प्यार’ का प्रसंग अब एकात्मक नहीं है। अब ग्रामीण अंचल ही स्त्रिायां भी मुखर होने लगी हैं। फिरभी ‘अभिज्ञात’ की कहानियां अपने समय केसच को परत-दर-परत खोलती हैं और सच्चाई उनके लिए अखजत की गई सी नहीं है बल्कि वह सहसा जहां-तहां से निकलकर पाठक के सामने आती है। कई बार वह अपनी बेलौस भंगिमा के कारण हकाबका देती है तो कई बार वह मर्म को बेधती है, शर्मसार करती है, हूक पैदा करती हैऔर कई बार ढाढस भी बंधाती है कि सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है।’ (फ्लैप से उद्धृत)।
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