Monday, 9 December 2019

जीवनस्पर्श की कहानियां: तीसरी बीवी


-संजय कुमार सेठ/पुस्तक वार्ता
-------------
हृदय’ और ‘बुद्धि’ के योग से संयुक्त ‘अभिज्ञात’ का ज्ञात मन सपने देखता है। ये सपने भी रोचक, उत्तेजक, मारक और दिल दहला देने वाले हैं। यह लेखक का पहला कहानी-संग्रह है ‘तीसरी बीवी’ जिसमें कुल छोटी-बड़ी 25 कहानियां120 पृष्ठों में पसरी हुई हैं। यह संकलन रचनाकार की रचनादृष्टि को समझने का अवसर देती है। अपने सृजनकर्म में ‘अभिज्ञात’ बदलते हिंदुस्तान की धधकते-धड़कन को अपने पाठकों को सुनाते हैं। भारत का वही परिदृश्य नहीं रह गया जो 25-30 वर्ष पहले था। गांव, शहर, विकास, मूल्य, घूसखोरी, भ्रष्टाचार आदि की जटिलताओं में लगातार वृद्धि हुई है। ‘इण्डिया शाइनिंग’ की नई पीढ़ी हिंदुस्तान की खाती-पीती और अघाती संस्कृति को महत्त्व देती है।‘पहलवान का बेटा पहलवान’ नहीं होता विज्ञानकी इस ‘थ्योरी’ को उग्रपूंजीवाद ने नकार दिया है। वह लोगों को विज्ञापित कर-करके बताता है कि देखो! पूंजीपति का बेटा ही पूंजीपति होगा। इस नई पूंजीवाद के स्वार्थी रक्षक हैं कोड़ा, तेलगी, पं.सुखराम, पप्पू यादव और रामालिंगम् राजू जैसे लोग। यही लोग आधुनिक भारत के कर्णधार है। इन्हीं के दल-बल पर हिंदुस्तान की समेकित संस्कृति और गंवई सहजता नष्ट-भ्रष्ट हो रही है। भारत में एक दौर1960-70 का था, जिसमें राजनैतिक, सांस्कृतिक गतिविधियों एवं साहित्य के बल पर जन पक्षधरता की वकालत की जाती थी। इस युगबोध के लोग कमजोरों, गरीबों और उपेक्षितों की लड़ाई केलिए जीते-मरते थे। किंतु 1990 के बाद,मंडल, कमंडल और भूमंडलीकरण ने भारतीय जनमानस में ‘सपने’ देखने और दिखाने का जज़्बा पैदा किया। ‘एमएनसी’ बिल्कुल नई मल्टीनेशनल कंपनी के आने से रोजगार बढ़ा,लेकिन उस अनुपात में नहीं जिस अनुपात उसने लोगों को सपने दिखाए थे गरीबी मिटाने के। कार्पोरेट कृषि, मॉल्स, मैक्ड़ी और मेट्रो कल्चर ने इधर भारतीय सामाजिक संरचना में हलचल पैदा की। इस हलचल से भारत का मध्यवर्गीय समाज उद्वेलित हुआ लेकिन ‘हाशिये’ का सामाजिक जीवन स्थिर और ग़लीज है। भारतीय समाज का यह उत्पीड़ित समूह मौसम की मार से पस्त है और कु-विकासनीतियों से बेहाल है। इन्हीं परिवर्तनों को ‘अभिज्ञात’ चित्रों एवं संकेतों के माध्यम से अपने कथा का आधार बनाते हैं। वे अपनी कहानियों में दिखाते हैं कि ‘बंगाल’ कभी नवजागरण का प्रतीक था। रोजगार के वहां अकूत संसाधन थे। ‘मिले’ आधुनिक मंदिरनबी, इन्हीं मंदिरों से व्यापार के नए-नए ‘बिजनेस ताइकून’ पैदा हुए। किंतु एक आम भारतीय का जीवन नरक बन गया। इस संग्रह की बानगी कहानी ‘तीसरीबीवी’ है। इस कहानी के केंद्र में ‘औद्योगिक कचरे’ पर पलने वाला समाज का चित्राण है। कहानी में ‘बूढ़ा नूर’ और ‘हबीब’ का जीवन बद से बदत्तर है। तंगी और अभाव से नूर कराह रहा है। इसमें नूर की बेटी का आना‘कोढ़ में खाज’ जैसा है, जिसे उसका मरद मारकर मैके भेज देता है। नूर अपनी बेटी को स्वयं हबीब के घर पहुंचा देता है क्योंकि वह उसकी परिवरिश करने में अक्षम है। हबीब के पास पहले से दो पत्नियां मौजूद थीं। हबीब कचरे पर पलने वाले लोग के बीच साहूकार जैसा है, किंतु उसकी भी वास्तविक हालत खराब है। वह जेल में बंद है। उसकी नई बीवी घर में आ चुकी है। ‘अभिज्ञात’ इस भयावह स्थिति का वर्णन करते हैं। वे उसपरिवेश की दारूण दशा को उभारते हैं, जहां नूर और हबीबी जैसों का समाज पलता है। यथा ‘खांव-खांव खांसने की आवाज घर-घर से उठती थी तो अनवरत क्रम पाड़े के कोने-कोने की चीजों को उलट डालने को व्यग्र-सा जान पड़ता था। कच्ची भित्तियां कांपती-सी लगतीथीं और टुटहे नाममात्र के दरवाजों, खिड़कियों,छप्परों और दरकी दीवारों से हवा का ठंडापन उनकी नाक और सीने में गिजगिजे मोम-साव्याप्त था, जो खंखारने और नाक सुकड़ने की क्रिया को रसद पहुंचा रहा था।’’ (पृ. 38) लेखककी यही पैनी दृष्टि ‘उसकी गरीबी’ ‘फूलबागान का सपना’ जैसी कहानियों में भी दिखती है। यहां बल अभाव के दर्शन पर नहीं है, बल्कि‘उस ‘व्यवस्था’ पर है जिनसे ‘खड़दह’ जैसा परिवेश लगातार बन रहा है। यह एक वैचारिक प्रतिबद्ध शहर की कथा है। गरीबी की राजनीति करने वाले, ये छद्म मार्क्सवादी सोनागाछी, चिड़ियामोड़, फूलाबगान, टीटागढ़, खड़दह जैसे मुहल्ले बसाते हैं। रचनाकार कविता के ढब पर लघुकथाएं रचता है। ये कथाएं गंभीर घाव करती हैं। इनका गठन संक्षिप्त है लेकिनउसकी मारक क्षमता तिलमिलाने वाली है।इस दृष्टि से ‘जश्न’, ‘मुक्ति’, ‘बंटवारे’,‘तरकीब’, ‘साख की कीमत’, ‘शिनाख्त नहीं’,‘कितना खराब’, जैसी कहानियां प्रमुख हैं। लघुकथा ‘तरकीब’ गांव के विद्वान पंडितों परकेन्द्रित है। समय के प्रवाह में ब्राह्मण गरीब होते हैं किंतु अपनी ‘कूटभाषा’ के बल परपुनः अमीर होकर समाज में अपनी प्रभुता स्थापित करते हैं। लेखक बताता है कि आज भी हिंदुस्तान में यह संप्रभु वर्ग अपनी कुशल ‘सामाजिक ताकत’ और ‘कूटनीति’ के दमपर समाज में सबका ‘पूज्य’ बना हुआ है।बहुतों के लिए आज भी गांव, गरीबी और पिछड़ेपन का पर्याय है। अभिज्ञात इस धारणा को तोड़ते हैं। वे गांव की सहजता, तिकड़म,जीवतंता और कलाप्रियता को उजागर करते हैं। ग्रामीण अंचल पर केंद्रित ‘तोहफा’,‘पड़ोसन’, ‘मुन्नीबाई’ बेजोड़ कहानी है। क्रमशःरोजगार के संसाधन शहर केंद्रित हो रहे हैं। ऐसे में गांव केवल स्मृतियों में है या तो‘पिकनीक स्पॉट’ के रूप में। ‘मुन्नीमाई’ की ‘कहाइन’ ठाकुरों के घरों में राज करती है।गर्मी के दिनों में मुन्नीबाई की पूछ बढ़ जाती है। मुन्नी पर ‘कब्जा पाने की परिवारों में होड़ सी रहती’ (पृ. 117) है। पूरे ठाकुर घराने में मुन्नीबाई की ठसक है। वह नखरे करती है, और अपनी देह दबवाती है, तथा उनकी नमकीन,बिस्कुट भी खाती है। अपने ‘हाड़तोड़ जांगर’के बल पर। शहराती बहू-बेटियों को आराम चाहिए और काम करने वाली गांव में बाई केवल मुन्नी है। गांव में मुन्नी के किस्से बहुत हैं। इसकी दरियादिली और कलाप्रियता का पता तब चलता है, जब कलाकार बहू वापस शहर जाने लगती है। मुन्नी पैसे न लेकर बदले में ‘एक खूबसूरत शाल गायिका बहू की तरफ बढ़ा दिया ‘भगवान तुम्हें तरक्की दे।मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है बहू। फूलो-फलो। फिर जल्द आना तुम्हारा इंतजार रहेगा।’ (पृ.120)। यह है अनपढ़, गवई बाई की कलाकार बहू को दिया गया प्यार, सम्मान और विदाई। इस प्रकरण पर गांव के कई लोगों की आंखें नम होती हैं। यह कहानी गांवों की रागात्मक संबंधों की तासीर को जिंदा रखती है। आधुनिक व्यक्ति जटिलताओं का पुंजहै। बाजार, मीडिया और तकनीकी क्रांति ने मानव जीवन को एकतरफ सुविधाभोगी बनाया तो, वहीं दूसरी ओर वह मनुष्य को आत्मकेंद्रित,स्वार्थी, दंभी और लूटेरा बना दिया है। मानव की स्वाभाविक गतिशीलता का क्षरण हो रहा है।व्यक्ति मनुष्यता का धर्म खोकर प्रतियोगी बनगया है। ऐसे में पारिवारिक संबंधों की जटिलताएंभी बढ़ी हैं। नई-पीढ़ी व पुरानी पीढ़ी में द्वंद्व,दाम्पत्य जीवन का उदासीपन, बच्चों का भावनात्मक रूप से कमजोर होना, प्यार जैसे सार्वभौमिक मूल्य ‘अर्थ’ के अनर्थ में बदल गएहैं। जाति की जकड़न ढीले और कड़े हुए हैं।लेखक इन सभी जटिलताओं को कथा बनाता है। इस दृष्टि से देखें तो ‘कायाकल्प’, ‘कुलटा’,‘शिनाख्त नहीं’, ‘फिर मुठभेड़’, ‘उसके बारे में’‘कपड़ों में बसी याद’ इत्यादि उत्कृष्ट कहानियां हैं। ‘औलाद’ कहानी की मां अपने कैरियर के लिए अपने नवजात शिशु की हत्या चाहती है क्योंकि वह मानती है ‘मैंने इसे मजबूरी में जन्म दिया है महज अपनी जान बचाने के लिए। मैं अपने प्रेमी को खो चुकी हूं। अब नौकरी से हाथ नहीं धोना चाहती और ना ही लोगों के तानेसुनने के लिए तैयार हूं। मैं इस बच्चे से छुटकारा पाना चाहती हूं।’ (पृ. 13)। यह कथा एयर हॉस्टेस नायिका की है, साथ ही एक संवेदनशील डॉ. नरेश की भी है। डॉ. नरेश बच्चेको बचाना चाहता है किन्तु ‘नर्सिंग होम’ का मालिक पैसों के दबाव में बच्चे को अन्य डॉ. से खत्म करवा देता है। बच्चे के खात्मा सेनिःसंतान दम्पति उदास हैं तो नरेश का शरीर प्राणशून्य है। ‘कैरियर’ और अकूत ‘धन’ की हवस ने आधुनिक मनुष्य का जीवन नरक बना दिया है। अभिज्ञात बार-बार अपने कहानी में इसी कोण को उठाते हैं। इस कृतिकार की भाषिक संरचना में नयापन है। छोटे-छोटे वाक्य विन्यास औरनपे-तुले शब्दों का चयन ‘कथ्य’ की आक्रामकता को बढ़ाते हैं। कहानी संकेतों, बिंबों, प्रतीकों में धीरे-धीरे आकार लेती है। कहानी में युगबोध ही‘नायक’ है। लेखक अपने कहानीपन के लिए अंग्रेजी, अरबी, हिंदी, बांग्ला, देशज शब्दों का घाल-मेल करता है। कहा इन, अहिराने, बाई,पाडे, मठ, गदही, पट्टे, कमरेडवा, भड़भुजापन,गोंजने, बचवा इत्यादि बंगाली और भोजपुरी मिश्रित शब्द-संतुलन से लेखक का यथार्थ-बोध कहीं खंडित नहीं होता है। ‘अभिज्ञात’ ‘फ्लैशबैक टेकनीक’ का उपयोग अपनी कहानियों में अधिकांशतः करते हैं। कहानी के बीच-बीच में संकेत, सामासिकता, गवेषणा, वर्णन शैलियों का बखूबी उपयोग हुआ है। इन शैलियों के कारण कहानी में ‘बहु-आयामिता’ और ‘अर्थ-सघनता’ बढ़ जाती है। प्रकृति और मनुष्य केबीच साहचर्य आवश्यक है। इनके न होने से पर्यावरण संकट गहरा सकता है। इस संकट की भाषिक व्यंजना की एक रवानगी देखिए-‘कछुओंके साथ उनका संबंध इतना प्रगाढ़ होता गया कि वे उनकी भाषा किसी हद तक समझने में कामयाब होने लगे थे। यह साढ़े चार सौ साल की उम्र का कछुआ था। वह उनसे मदद मांग रहा था। उसका कहना था कि समुद्र में तेल निकालने के जो प्रयास किए जा रहे थे उससे समुद्र की भारी क्षति होने जा रही है। समुद्र के पास अथाह संपदा है किंतु उसे प्राप्त करने केतरीके मनुष्य ने नहीं सीखे हैं। उन्हें सीखना होगा। जिस प्रकार से तेल निकालने के प्रयास किए जा रहे हैं स्वयं कछुए की जाति भी खतरेमें पड़ने जा रही है और मछली सहित अन्यजीवन भी, जो समुद्र में रहते हैं। (पृ. 60-65)बढ़ी हो सकती है? यह ‘अभिज्ञात’ ही जाने।इन कथाओं के कुछ बिंदु ऐसे थे, जो कथानक में विस्तार पाते तो उसकी वेदना पाठकों को और झकझोरती। लेखक की ‘स्त्राी विषयक दृष्टि ’पुरुष के नजरिए से देखा गया है। ‘प्यार’ का प्रसंग अब एकात्मक नहीं है। अब ग्रामीण अंचल ही स्त्रिायां भी मुखर होने लगी हैं। फिरभी ‘अभिज्ञात’ की कहानियां अपने समय केसच को परत-दर-परत खोलती हैं और सच्चाई उनके लिए अखजत की गई सी नहीं है बल्कि वह सहसा जहां-तहां से निकलकर पाठक के सामने आती है। कई बार वह अपनी बेलौस भंगिमा के कारण हकाबका देती है तो कई बार वह मर्म को बेधती है, शर्मसार करती है, हूक पैदा करती हैऔर कई बार ढाढस भी बंधाती है कि सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है।’ (फ्लैप से उद्धृत)।
तीसरी बीवी/ अभिज्ञात/ शिल्पायन/ 10295, लेननं. 1, वैस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032/ृ150द्वारा विक्की शर्मा, 38/5, शक्ति नगर,दिल्ली-110007, मो. 9868056118

Wednesday, 20 April 2011

दिल्ली में दलाली हो सकती है, साहित्य चर्चा नहीं

साभार-दैनिक जागरण
Apr 08, २०१०-03:00 am
कोलकाता। वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यिक पत्रिका हंस के कार्यकारी संपादक संजीव ने कहा कि दिल्ली में दलाली हो सकती है लेकिन साहित्य चर्चा की गुंजाइश नहीं है। दिल्ली की संवेदना सूख चुकी है। ऐसे माहौल में चौधराहट तो संभव है लेकिन साहित्य की संभावना नहीं रहती है। साहित्य के लिए संवदेना की जरूरत है और दिल्ली में इसकी भारी कमी है। यदि बंगाल में उन्हें अवकाश के बाद आठ हजार रुपये की नौकरी मिल जाती तो कभी दिल्ली की ओर रुख नहीं करते। संजीव भारतीय भाषा परिषद की ओर से आयोजित लेखक से मिलिये कार्यक्रम में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि हिन्दी साहित्य का आज यह दुर्भाग्य है कि जितने लेखक हैं उतने पाठक हैं। वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह कविता के आलोचक हैं और कहानी और उपन्यास पर टिप्पणी कर रहे हैं। राजेन्द्र यादव लेखन में सेक्स ढूंढ रहे हैं। उन्होंने कहा कि साहित्य की अपनी शर्त है और जब तक लेखक उसे पूरा नहीं करता है तब तक आम पाठक के लिए संप्रेषण मुश्किल है। उन्होंने अपनी रचना प्रक्रिया पर कहा कि मेरी शुरू से शोध कर लिखने की आदत रही है। जब तक लेखक द्वंद्व के नये क्षेत्रों का अन्वेषण नहीं करेगा तब तब धारण स्पष्ट नहीं होगी। रुस के मैक्सिम गोर्की उनके पसंदीदा लेखक हैं। और उनकी सबसे बड़ी खासियत है कि वे जो देखते थे उसे हूबहू लिखते थे। उन्होंने कहा कि आज जिस ढंग से कहानीकारों की फौज तैयार हो रही है और कुछ दिन बाद गुम हो जा रही है यह चिंता का विषय है। हम जिस समय में जी रहे हैं उस समय में जीने का कोई तुक समझ में नहीं आ रहा है। इस मौके पर पत्रकार एवं युवा कथाकार अभिज्ञात के कहानी संग्रह तीसरी बीवी का संजीव ने लोकार्पण किया। युवा लेखक हितेन्द्र पटेल ने कहा कि अभिज्ञात की कहानी सोचने को बाध्य करती है यही उनकी पहचान है। वरिष्ठ लेखक अरुण माहेश्वरी ने कहा कि अभिज्ञात की कहानियों में निराशा का बोध होता है। रचनधर्मी जीवन सिंह ने तीसरी बीवी संग्रह के कुछ कहानियों पर प्रकाश डाला। बांग्ला के वरिष्ठ कवि अर्धेन्दू चक्रवर्ती ने कहा कि ऐसे कार्यक्रमों में रचनाकारों की रचना पर सामूहिक रूप से चर्चा होनी चाहिए। अतिथियों का स्वागत व कार्यक्रम का संचालन भारतीय भाषा परिषद के निदेशक एवं समीक्षक डा. विजय बहादुर सिंह ने किया।

Tuesday, 4 January 2011

सर्पदंश

कहानी
शिखा पाण्डेय के लिए इंटर्नशिप एक चुनौती बन गयी थी. उसने सोचा भी न था कि डॉक्टरी का यह करियर उसे उस मुकाम पर पहुंचा देगा जहां उसे कठिन विकल्पों में से ही एक को चुनना होगा. कहां तो उसने सोचा था कि वह साइंस की तरक्की का लाभ इस देश के लोगों को पहुंचा सकेगी. खास तौर पर वह गांवों में उन लोगों को राहत देना चाहती थी जो चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में असमय ही दुनिया से कूच कर जाते हैं अथवा उपयुक्त इलाज न हो पाने के कारण छोटी मोटी बीमारियों से भी बरसों जूझते रह जाते हैं और वह बीमारी देखते देखते ही तिल से ताड़ बन जाती है.

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से वह बीएससी कर रही थी कि उसके सपनों को पंख मिल गये और वह प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण हो गयी और कोलकाता के एक मेडिकल कॉलेज में उसका दाखिला हो गया. चार वर्ष का पाठयक्रम उसने पूरा कर लिया था अब छह माह का इंटर्नशिप उसे पास करना था जिसके बाद वह स्वतंत्र थी मेडिकल प्रेक्टिस के लिए. इस बीच उसके घर की हालत सोचनीय होती चली गयी थी. पिता ने ज़मीन बंधक रख दी थी. छोटी दो बहनें कुंवारी थीं और पिता को उम्मीद थी कि डॉक्टर बेटी अपनी कमायी से उन्हें पार लगायेगी. आखिर बेटी का भी तो कुछ कर्तव्य बनता है ऐसे पिता के प्रति जितने लोगों के तमाम भड़कावे के बावजूद उसे इतनी ऊंची तालीम हासिल करने दी.

शिखा की उम्र भी निकली जा रही थी किन्तु उन्होंने उस पर विवाह के लिए जोर नहीं डाला और उसके बाद वाली बेटी निशा का ब्याह दो साल पहले ही कर दिया और हाथ खड़े कर दिये कि अब किसी और बेटी को ब्याहने की उनकी स्थिति नहीं है शिखा ही अपनी नौका खुद पार लगाये और अपनी दो अन्य छोटी बहनों के लिए भी वक्त आने पर घर-बार खोजे.

लोग उन्हें समझाते थे बेटियां दूसरे के घर जाने वाली होतीं हैं. उनसे उम्मीद नहीं पाली जानी चाहिए. बहुत होगा तो वह इतना करेगी कि अपने लिए कोई डॉक्टर वर खोज लेगी लेकिन अन्य कोई उम्मीद करना बेकार है. लेकिन पिता को अपनी आस्था के लिए एक ठौर मिल गया था और वह थी उनकी बेटी शिखा. ईश्वर और शिखा उनके जीवन के दो ध्रुव बन गये थे जिसके बीच उनका जीवन परिक्रमा करता रहता था. इसमें भी शिखा की मुख्य भूमिका होती और ईश्वर उसके सहायक. उनकी चर्चा शिखा से शुरू होती और शिखा पर ख़त्म.

कभी शिखा छुट्टिओं में बनारस से कुछ किमी दूर स्थित अपने गांव लाखी जाती तो पिता की अपने से लगायी गयी उम्मीदों से सहम जाती. यदि वह उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी तो जाने क्या होगा....

यूं तो शिखा ने सारी बाधाएं पार कर ली थी. घर- परिवार व जीवन के अन्य उतार चढ़ाव की बाधाएं को अपने दिलो दिमाग से निकाल कर अपने करियर के बारे में सोचती और ध्येय को पाने में जुटी रहती. अब मंज़िल करीब थी. वह जल्द से जल्द मेडिकल प्रेक्टिस शुरू कर अपने परिवार की आर्थिक बाधाओं को दूर करना चाहती थी. मिट्टी का घर भी अब गिरने गिरने को था. पिछली बरसात वह झेल गया था जैसे तैसे लेकिन इस बार की वर्षा वह निकाल पायेगा इसमें संदेह था.

शिखा को इंटर्नशिप के लिए बंगाल दक्षिण 24 परगना जिले के एक ग्रामांचल के सरकारी अस्पताल दिया गया था जहां उसे छह महीने चिकित्सा करनी थी. उसे अस्पताल के वरिष्ठ डॉक्टरों के दिशा-निर्देश में काम करना था. कोलकाता से दो घंटे के बस के सफर के बाद वह अस्पताल पहुंचती और काम के बाद वापस लौटती. अस्पताल के हालत उसके लिए विस्मयकारी थे. किताबों से बाहर निकल कर व्यवाहरिक दुनिया में प्रवेश उसके लिए नया अनुभव था. उसने सोचा भी न था कि उसके ख्वाबों की हक़ीकत ऐसी होगी और उसके आदर्श धरे के धरे रह जायेंगे. मेडिकल सांइस की तरक्की को यहां की व्यवस्था मुंह चिढ़ा रही थी. अस्पताल में कुछ आठ दवाएं थी जिनसे उसे लोगों की तमाम बीमारियों का इलाज करना था. ऊपर से तुर्रा ये कि किसी भी मरीज को यह नहीं बताना था कि अमुक दवा नहीं है. दवा न भी हो तो मरीज के इलाज का नाटक जारी रखना था क्योंकि ऐसा न करने पर लोगों की नाराजगी का अस्पताल निशाना बनेगा और सरकार भी. व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लग जायेगा. मामला विधानसभा में उठ सकता है. मीडिया तो यूं भी फुटेज के चक्कर में तिल को ताड़ बनाता रहता है. विपक्ष को बैठे बिठाये वामपंथी सरकार के खिलाफ़ मुद्दा मिल जायेगा. अधिक से अधिक उन्हें आज़ादी थी मामले को कोलकाता के किसी अन्य अस्पताल को रेफर कर दिया जाये. किन्तु ऐसे मामलों में भी कैफियत देनी पड़ेगी. शिखा ने गांव के किसी अस्पताल में प्रेक्टिस का विचार सिरे से खारिज कर दिया. ना वह बिना दवा के इलाज का स्वांग नहीं करेगी.

शिखा को अभी कुल चार दिन ही हुए थे और वह यहां की व्यवस्था से परिचित हो चली थी. परिचित ही नहीं हुई थी बल्कि वह इस व्यवस्था का हिस्सा बनने का मन बना चुकी थी. उसके पास कोई विकल्प नहीं था. इंटर्नशिप उसे पूरी करनी थी. मन कड़ा कर लिया था और वह व्यवस्था का कोई असर दिलो दिमाग पर न पड़े इसकी पूरी कोशिश में लगी थी. वह अपने मन को विचलित नहीं करना चाहती थी. वह लक्ष्य पर निगाह गड़ाये हुए थी. उसकी आंखों के सामने पिता थे. उनके सपने थे. बहनें थी उनकी जिम्मेदारियां थीं. गांव के लोग थे जिनकी वह शान व पहचान थी. गांव की पहली डॉक्टर वह बनेगी.

अस्पताल में उस दिन जैसे ही वह पहुंची तो पाया कि सर्पदंश का मामला आया हुआ है. बाईस साल का युवक था जिसे गांव वाले चारपाई पर लिटाकर ले आये थे. विधवा मां, दो कुंवारी बहनें धाड़ें मार-मार के रो रही थीं. और गांव के लोग थे जो उन्हें दिलासा दे रहे थे कि वह ठीक हो जायेगा. लो डॉक्टर आ गयी.... लोगों के चेहरे का तनाव थोड़ा कम हुआ. अस्पताल में फिलवक्त कोई और डॉक्टर था सो जिम्मेदारी उस पर थी. उसने पता किया सर्पदंश से निजात का कोई इंजेक्शन अस्पताल में नहीं था. उसे इलाज का अभिनय भर करना था. उसके समक्ष एक चुनौती थी और उसके इम्तहान की घड़ी. उसने मन कड़ा कर लिया. उसने पढ़ा था ज्यादातर सांप विषैले नहीं होते किन्तु कई लोग दहशत से मर जाते हैं. उसका अभिनय काम आ सकता था. इलाज के अभिनय से प्रभावित व्यक्ति का मनोबल ऊंचा उठ सकता था उम्मीद थी वह ठीक हो जायेगा. दवा से नहीं अपने-आप. उसने भगवान से मनाया कि जिस सांप ने काटा है वह विषैला न हो. किन्तु उसका कामनाएं फलीभूत होती नज़र नहीं आ रही थी.

इसी बीच एक और घटना घटी जिसने उसे झकझोर कर रख दिया. युवक की हमउम्र एक युवकी रोती बिलखती अस्पताल पहुंची. उसने अपने पास सिंदूर की डिबिया रखी थी. लगभग बेसुध होते युवक के समक्ष वह फूट पड़ी-‘मैं नहीं जानता तुम बचोगे कि नहीं. लेकिन तुम जान लो कि मैं तुम्हारी हूं. मैं तुम्हारी विधवा बन कर जी लूंगी मगर दूसरे से हरगिज़ शादी नहीं करूंगी. मैंने बहुत कोशिश की कि गांव वालों से अपना प्रेम छिपा लूं. मैं जानती हूं कि मेरे पिता इस शादी के लिए कभी राजी नहीं होंगे फिर भी मैं कोशिश में थी कि कभी न कभी उन्हें मना लूंगी. मगर अब वक्त नहीं बचा है. पता नहीं क्या होगा. तुम नहीं भी बचोगे तो यह जानकर जाओ कि मैं तुम्हारी हूं.’

और उसने अस्पताल में गांव वालों के सामने युवक से सिन्दूर अपनी मांग में भरवा ली. शिखा दहल गयी. उसकी आंखों से सब्र आंसू बन कर बह निकला. इस बीच युवक अचेत हो गया था. शिखा ने मन कठोर कर लिया और युवती से पूछा-'क्या तुम्हारे पास गाड़ी है?'

युवती के हां कहने पर उसने कहा-‘मैं जान गयी हूं इसे किस सांप ने काटा है. वह बहुत जहरीला है. उसका इलाज आसान नहीं. तुम इसे लेकर जल्द से जल्द कोलकाता मेडिकल कालेज चली जाओ. यहां उसका इलाज नहीं हो पायेगा.’

युवती ने लोगों की मदद से फौरन युवक को कार में बिठाया और गाड़ी चल पड़ी. लोगों को जैसे ही पता चला कि अस्पताल में इलाज संभव नहीं गुस्सा फूट पड़ा. अस्पताल प्रबंधन और डॉक्टरों के लिए गालियां दागी जाने लगीं. इधर गांव के लोगों ने अस्पताल में तोड़फोड़ शुरू कर दी थी. शीशे की खिड़की को तोड़ता हुआ एक सनसनाता पत्थर उसके सिर पर लगा था और वह अचेत हो गयी.

उसे जब होश आया तो पाया कि वह अस्पताल के एक बेड पर पड़ी है और भारी संख्या में पुलिस बल अस्पताल में तैनात है. उसके कमरे के बाहर भी पुलिस थी. उसे सिर पर लगी चोट का भी अहसास हुआ किन्तु मन में संतोष का भी अनुभव किया कि सब कुछ के बावजूद वह एक युवक की जान बचाने में सफल रही. इस बीच उसका बयान लिया गया. वहां उसके सीनियर डॉक्टर्स भी थे. पता चला कि सर्पदंश से युवक की मौत हो गयी है. लोग अस्पताल के बाहर प्रदर्शन कर रहे हैं. एहतियात के तौर पर पुलिस बुलायी गयी है.

सूखा सूखा कितना सूखा

कहानी
वह अदना सा अंशकालिक पत्रकार था। एक बड़े अख़बार का छोटा सा स्ट्रिंगर। उसका ख़बरों की क़ीमत शब्दों के विस्तार पर तय होती थी, ख़बरों की गहराई और महत्त्व पर नहीं। जिस ख़बर के जुगाड़ में कई बार उसका पूरा दिन लग जाता उसकी लम्बाई कई बार तीन-चार कालम सेंटीमीटर होती।

ऐसा होने पर वह अपने आपको ठगा सा महसूस करता। जिन दिनों अख़बार के विज्ञापन की दरें 215 रुपये प्रति कालम सेंटीमीटर हुआ करती थी उसके छपे समाचार पर 2 रुपये 15 पैसे प्रति कालम सेंटीमीटर मिलता था अर्थात सौंवा हिस्सा। पांच बरस बीत गये विज्ञापन की दरें बदलीं मगर नहीं बदला तो उसका मानदेय। इसके अलावा एक सुनिश्चित मानदेय रिटेनरशिप के नाम पर तीन सौ रुपये प्रतिमाह मिलता था। यह अनायास नहीं था कि स्ट्रिंगर ने स्फीति को अपनी पत्रकारिता का गुण बना लिया। ख़बर में अनावश्यक फैलाव और दुहराव न होता तो उसकी दैनिक कमाई एक रिक्शावाले के बराबर भी न हो।

और उधर डेस्क की ड्यूटी इस काम के लिए लगी होती थी कि स्ट्रिंगरों की ख़बरों की स्फीति और अनावश्यक हिस्सों को काटा-छांटा जाये। काट-छांट करने वाले मज़े में थे। कम्पनी की तरफ़ से उन्हें तमाम सुविधाएं थीं। वे एसी युक्त कार्यालय में बैठे-बैठे स्ट्रिंगरों की मूर्खताओं की चर्चा कर फूले न समाते और अपने को विद्वान मानने का वहम पाले रहते। एक ही ख़बर पर दोहरी मेहनत होती थी। सब कुछ अरसे से ठीक-ठाक चल रहा था किन्तु एक दिन स्ट्रिंगर की पेशागत ज़िन्दगी में उथल-पुथल मच गयी।

हुआ यूं कि उस दिन उसके पास ख़बरों का खासा टोटा था और उसने जिले के कुछ हिस्सों में सूखे की एक खबर गढ़ दी। यूं भी बारिश के दिनों में कई दिन से बारिश नहीं हुई थी। उसने अनुमान लगाया था कि यह हाल रहा तो सूखा पड़ सकता है। उसने ख़बर बहुत हल्के तौर पर लिखी थी उसे क्या पता था कि डेस्क उसे खासा तूल दे देगा। डेस्क पर एक अति उत्साही जीव आये हुए थे। स्ट्रिंगर कोलकाता के एक दूर-दराज़ जिले का था जो जिला मुख्यालय से भी काफी दूर एक क़स्बे में रहता था जहां से वह अपनी खबरें फ़ैक्स से भेजता था।

फ़ैक्स करने के लिए उसे तीन किलोमीटर दूर बाज़ार में आना पड़ता था। सूखे की ख़बर को फ़ैक्स तो उसने किया था किन्तु दूसरे दिन वह ख़बर लगी नहीं। अगले दिन वह अन्य ख़बरें फ़ैक्स करने गया तो वहीं से फ़ोन कर सूखे की स्टोरी के सम्बंध में डेस्क से पूछा तो कहा गया-‘तुम लोगों को क्या पता कि ख़बर किसे कहते हैं और कैसे बनती है? तुम तो बस वह करो, जो कहा जा रहा है। यह बहुत बड़ी ख़बर है जिसे तुमने बहुत मामूली ढंग से लिखी है।’

स्ट्रिंगर किन्तु-परन्तु करता रह गया और दूसरी ओर से फ़ोन काट दिया गया। अगले दिन उसने वही किया जो कहा गया था। सरकारी महकमे से जिले में सूखे से सम्बंधित पिछले रिकार्ड जुटाये और भेज दिया। अगले दिन सूखे को लेकर जो समाचार छपा उससे वह खुद हैरत में पड़ गया और उसका कलेजा कांप गया। खबर पहले पेज़ पर थी और कहीं इंटरनेट आदि से मैनेज किया गया फ़ोटो था दरकी हुई ज़मीन का। ख़बर की विषयवस्तु के साथ खिलवाड़ किया गया था और जो सूखे की आशंका उसने व्यक्त की थी उसे डेस्क ने बदलकर सूखा पड़ा कर दिया था। उसे लगा कि अब तो उसकी स्ट्रिंगरशिप गयी। रोज़गार का यह रास्ता भी बन्द। वह आशंका से बुरी तरह त्रस्त हो गया।

कोलकाता के दूसरे अखबारों में सूखे की ख़बर सिरे से नदारत। सिर्फ़ एक अख़बार में ख़बर थी। उसे एक्सक्लूसिव माना गया और किन्तु बाक़ी अख़बारों से संवाददाता और फ़ोटोग्राफ़र भेजे गये सूखे के कवरेज के लिए। चूंकि वह सुदूर जिला था अधिकतर अख़बारों में स्टाफ़ रिपोर्टर नियुक्त नहीं थे इसीलिए स्टाफ़ रिपोर्टर भेजे गये थे। जिले में कुछ दिनों तक सूखे के
कवरेज के लिए।

पत्रकारों ने एक-दूसरे से सम्पर्क किया और एक साथ एक ही ट्रेन से सूखाग्रस्त जिले में पहुंचे। इलेक्ट्रानिक मीडिया भी साथ था। रास्ते में ही तय हो गया था कि क्या करना है। जिस स्ट्रिंगर ने यह ख़बर सबसे पहले ब्रोक की है उससे सम्पर्क साधना है। उस अख़बार का फ़ोटोग्राफ़र इस ट्रेन से जा रहा था, जिसे वहां पहुंचते ही स्ट्रिंगर स्टेशन पर रिसीव करने वाला था। बाक़ी पत्रकार भी उसी के भरोसे थे कि वह प्रभावित इलाके का बासिन्दा है इसलिए स्थिति से पूरी तरह वाक़िफ होगा और उन सबकी मदद करेगा।

स्टेशन के पास ही के होटल में सारे पत्रकार ठहरने वाले थे जहां से वे स्टोरी कवर करके फ़ोन और ईमेल व अन्य साधनों से भेजने वाले थे। इतने सारे रिपोर्टर-फोटोग्राफ़र जब स्टेशन पर एक साथ उतरे कोस्ट्रिंगर के पैरों तले ज़मीन खिसक गयी। वह मन ही मन भगवान को याद करने लगा जबकि वह विचारधारा से किसी हद तक मार्क्सवादी था। होटल में जब सब फ्रेश हो लिए और नाश्ते-पानी के बाद उसके साथ कूच करने के लिए तैयार हुए तो उन्हें बताया गया कि यह जिला अत्यंत पिछड़ा हुआ है और ज़्यादातर गांवों में सड़कें नहीं पहुंची हैं सो उन्हें पैदल ही चलना होगा।

स्ट्रिंगर बेमतलब उन्हें खेतों और पतली पगडंडियों पर देर तक चलाता रहा फिर एक बड़े से तालाब के पास ले गया जो अरसे से सूखा पड़ा था। उसने बताया –‘यह तालाब पानी से लबालब भरा रहता था जो अब सूख गया है।’ उसने वह परती ज़मीनें दिखायी जिस पर कभी खेती हुई ही न थी और दरारें पड़ी हुई थीं और कहा-‘इसमें फसलें लहलहाती हैं जो अब सूखे की वज़ह से बेहाल हैं।’

शहरी पत्रकारों को ग्राम्य जीवन की न तो पूरी जानकारी थी और ना ही जानकारी हासिल करने की ललक और ना ही कोई दूसरा चारा। वह दो-एक ऐसे नलकूपों तक ले गया जो सरकारी खानापूरी के लिए लगाये तो गये थे लेकिन जिनमें लगने के बाद भी कभी पानी नहीं आया था। एक सूखा कुंआ भी उसने दिखाया जो बरसों से उसी अवस्था में था किन्तु उसके बारे में जानकारी दी कि वह इस सूखे के कारण ही इस अवस्था में है। उसकी बतायी गयी सूचनाएं मीडिया के लोग दर्ज़ करते रहे। तस्वीरें उतारी गयीं।

टीवी वालों ने भी स्थलों की बाइट ली। उन्हें एक पेड़ की छांह में बिठाकर स्ट्रिंगर पास ही के गांव में गया और लोगों को समझा-बुझाकर वहां ले आया जो सूखे की गवाही देने को तैयार थे। गांव वालों को उसने समझाया था कि यदि वे सूखे की गवाही देंगे तो उन्हें सरकार से पैसे मिलेंगे। लोग खुशी-खुशी गढ़ा हुआ झूठ बोलने को तैयार हो गये। दो-तीन युवक साइकिल से पड़ोस के गांव भी दौड़ा दिये गये जो गढ़े झूठ का साथ देने के लिए तैयार किये जाने के मक़सद से भेजे गये। फिर क्या था सूखे के पुराने दिनों को गांव वाले याद करते और इस सूखे के बारे में भी वैसा ही बयान देते। ख़बरें बनने लगीं। कैमरों के फ़्लैश चमकने लगे। टीवी वाले अलग-अलग लोगों के बयान लेते रहे।

अगले दिन सारे अख़बारों में सूखा और उसकी तस्वीरें छा गयीं। टीवी पर भी सूखा दिखा। मीडिया ने दूसरे दिन अपनी कलाकारी दिखायी लोगों से कहा गया कि वे वर्षा के लिए पूजा-अर्चना करें, नमाज़ पढ़ें ताकि उसका कवरेज शानदार दिखायी दे। गांव वालों ने ऐसा ही किया। मीडिया के वहां होने की ख़बर पाकर स्थानीय विधायक, सांसद और कलेक्टर सहित तमाम अधिकारी वहां पहुंच गये। उन सबके चेहरे पर रौनक थी। उनके मन में पिछले सूखे से हुई कमाई की याद ताज़ा हो आयी थी। और इस बार तो सूखा छप्पर फाड़ कर आया था। बैठे बिठाये। सरकारी राहत का ज़्यातातर माल ज़ेब में आने की संभावना बन रही थी। उन्हें तो पता ही न था कि कब सूखे ने यूं उनके यहां दस्तक़ दी थी। अख़बारों के रास्ते।

सब मीडिया के सामने सूखे की भयावहता का बढ़-चढ़ कर वर्णन कर रहे थे और सरकार से खासी मदद मांग रहे थे। टीवी पर ही उन्होंने सुना कि सम्बंधित मंत्री ने पहले तो मीडिया की ख़बरों के आधार पर प्रधानमंत्री को तत्काल पत्र लिखा था और सूखा से निपटने और राहत के लिए करोड़ों रुपयों की पुरज़ोर मांग कर दी थी। वे ज़ल्द ही इलाके के दौरे पर आने वाले थे। मुख्यमंत्री राहत कोष से भी राहत राशि की घोषणा कर दी गयी थी।

प्रधानमंत्री ने भी आश्वासन दिया था। तीन दिन से मीडिया में सूखे की ख़बरों का ज़बर्दस्त कवरेज रहा। खेत का दरकी हुई ज़मीन, सूखे तालाब, नलों की सूखी हुई टोंटियां, चारे के अभाव में दुबले हुए मवेशी न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में दिखायी दे रही थीं। सूखे के प्रचार दौड़ में मीडिया एक-दूसरे को पछाड़ने में लगे थे और यह स्ट्रिंगर के होश उड़ाये हुए था। उसका दिल रह-रह कर डूबता-उतराता रहा। यह सब उसी की ग़ल्तियों का नतीज़ा है। उसका फ़रेब सामने आया तो क्या होगा? क्या पता उसे लम्बी सज़ा ही न हो जाये? तीस-चालीस रुपये की हवाई स्टोरी उसे कितनी महंगी पड़ेगी वह सोच नहीं सकता था। और अब सच स्वीकार करने का कोई रास्ता न बचा था।

यह सब कुछ चल रहा था कि अचानक सब कुछ बदल गया एकाएक तेज़ बारिश होने लगी। अधिकारियों के चेहरे उतर गये। सांसद और विधायक की गाड़ियां एकाएक वहां से नदारत हो गयीं लेकिन जो निराश नहीं था वह था स्ट्रिंगर। चलो सूखे से पीछा छूटा। उसने चैन की सांस ली। खुश था मीडिया भी। स्टोरी में ट्विस्ट आ गया था।

लोगों से मीडियाकर्मियों ने गुजारिश की कि वे बारिश में नाचें। लोगों की बारिश में नाचती तस्वीरें और टीवी फुटेज लिये गये। यह सूखे से निज़ात पाये लोगों का उल्लास था जो मीडिया की नज़रों से दुनिया ने देखा। इसी बीच स्ट्रिंगर के आफ़िस से मोबाइल पर फ़ोन आया। फ़ोन पर स्ट्रिंगर को सूखे के कवरेज में पहल के लिए बधाई दी गयी और बताया गया कि पुरस्कार स्वरूप उसका रिटेनरशिप दो सौ रुपये प्रतिमाह तत्काल प्रभाव से बढ़ा दिया गया है।

जीवनस्पर्श की कहानियां: तीसरी बीवी

-संजय कुमार सेठ/पुस्तक वार्ता ------------- हृदय’ और ‘बुद्धि’ के योग से संयुक्त ‘अभिज्ञात’ का ज्ञात मन सपने देखता है। ये सपने भी रो...