कहानीदीपक और अमिता दोनों ही अब कामकाजी हो गये थे। उनके लिए बेटी अब एक समस्या ही थी क्या करें इसका। देखरेख कैसे हो. कामवाली बाई के भरोसे बच्ची को घर पर अकेला छोड़कर निश्चिन्त नहीं हुआ जा सकता। तरह-तरह की खबरें अख़बारों में पढ़कर उसका दिल दहल उठता था। बाई का क्या है... थोड़ी सी लापरवाही कर दे तो क्या से क्या हो जायेगा। फिर क्या वह उनकी अनुपस्थिति में ठीक से उसे खिला-पिला भी पायेगी.? अमिता को काम मिले अभी एक सप्ताह ही हुए होंगे किन्तु लगने लगा था कि वे इस समस्या से बरसों से जूझ रहे हों। रोज पति-पत्नी में बेटी की देख-रेख को लेकर कई विकल्पों पर चर्चा होती किन्तु समाधान अभी नहीं मिल पाया था। नाते-रिश्तेदारों में किसी आश्रयहीन महिला के विकल्प पर भी विचार किया गया। आखिर घूमफिर कर एक ही विकल्प उभरता कि दीपक अपनी मां के पास छोड़ आये दीपिका को। मां इंदौर नहीं छोड़ना चाहती थी। दो साल और बचे थे पापा के रिटायर होने में। वहां उन्होंने अपनी ज़िन्दगी के साढ़े तीन दशक काटे थे। दो साल बाद तो फिर इंदौर छोड़ ही देना होगा। उसके बाद तो उनके पास दो ही विकल्प थे वे या तो गांव में देवरिया जाकर रहें या फिर वे दीपक के पास कोलकाता चले आयें। यदि दीपक व अमिता को उनकी ज़रूरत हो तो ही वे कोलकाता आयेंगे। इतना स्वाभिमान तो उनमें था ही कि बेटा यदि अपनी ज़रूरत न बताये तो वे खुद अपनी सुख सुविधा के लिए उनके यहां नहीं रहेंगे। अब तक तो उन्होंने केवल दिया ही है। हर मामले में। वे औलाद के ऋणी नहीं हैं और वे बोझ बनना भी नहीं चाहते। आपस में मां-बाप इस तरह की बातें भी किया करते।
जब दीपक ने फ़ोन पर मां को बताया कि अमिता पढ़ी लिखी है और उसे काम मिल गया है। वह काम करना चाहती थी जिससे कि महानगरीय जीवन की आवश्यकताएं की पूर्ती हो सके। अकेले दीपक ही काम क्यों करे. फिर बच्चों का क्या है. कुछ दिनों में जब जब वह बड़ी हो जायेगी तो उसकी अपनी दुनिया हो जायेगी और अमिता के जीवन में शून्य रह जायेगा। उस समय काम करना भी चाहेगी तो शायद देर हो चुकी होगी। नौकरी पकड़ने की उम्र निकल जायेगी। अब चूंकि अमिता को काम मिल गया है तो उसे संज़ीदगी से जमे रहना चाहिए। आठ-दस हजार कम नहीं होते। एक साथ बड़ी रकम का इज़ाफा प्रतिमाह उनके यहां हो रहा है। आख़िरकार उन्होंने तय किया कि साल-दो साल के लिए दीपिका को इंदौर भेज दिया जाये मां-बाप के यहां। दो साल बाद जब पापा रिटायर हो जायेंगे तो वे लोग भी दीपिका के साथ कोलकाता आ जायेंगे। दीपिका के एकाकीपन की समस्या भी हल हो जायेगी और उन लोगों की भी।
-दीपक ही ले गया दीपिका का इंदौर। अमिता नहीं गयी थी। उसका कलेजा फटा जा रहा था। नौकरी उससे एक बड़ी क़ीमत वसूल रही थी... छह साल की बेटी से ज़ुदाई। लेकिन एक तरफ़ महानगरीय जीवन था, उसकी आवश्यकताएं थीं। स्वयं उसका अपना कैरियर था। तमाम नौकरियों की परीक्षओं व इंटरव्यू की तैयारियों में वह व्यस्त रही थी जिसके चलते वह दीपिका की पढ़ाई पर कितना कम ध्यान दे पायी थे यह वह अच्छी तरह से जानता थी। काम की तलाश में कितना समय और श्रम जाया किया था उसने तब जाकर काम हासिल हुआ था और अब यह काम उससे और बहुत सा वक्त चाहता था। पति-पत्नी दोनों की व्यस्तताओं के कारण बेटी कितनी उपेक्षित थी यह वे दोनों ही जानते थे। अब अमिता को बेटी पर लाड़ आ रहा था। जब दीपक उसे लेकर इंदौर जा रहा था अमिता ने कह दिया था कि यदि दीपिका वापस आने की ज़िद करो ते उसे लेते आये। वह स्वयं नहीं जानती कि दीपिका उन लोगों के बगैर अपनी दादी के यहां रहने को तैयार होगी भी या नहीं।
दीपक इसलिए भी अमिता को लेकर इंदौर नहीं गया था कि अमिता कमज़ोर न पड़ जाये और अन्तिम समय में बेटी के मोह में अपना फ़ैसला बदल दे। क्या मां-बाप से दूर रहकर बच्चे अपना कैरियर बनाने के लिए लिखते पढ़ते नहीं हैं? क्या स्वयं मां-बाप को यह हक नहीं है कि भी अपने कैरियर के लिए बच्चों को अपने से दूर कर दें? उसकी
अपनी निग़ाह में यह फ़ैसला जायज़ था। फिर दो साल ही की तो बात है... देखते देखते निकल जायेंगे।
दीपक ने दीपिका के एडमीशन के लिए एक बेहद खूबसूरत परिवेश वाला स्कूल चुना था। वहां शानदार प्ले ग्राउंड था तो ख़ूबसूरत लान भी। सुन्दर व सुरुचिपूर्ण क्लास रूम, वैसी ही लाइब्रेरी। फ़ीस महंगी थी किन्तु सुविधाओं के अनुपात में अधिक नहीं। दीपक ने अपने को समझाया वे बच्ची को अपने से दूर इसलिए थोड़े नहीं रख रहे थे कि वे पैसे बचाना चाहते थे। इस स्कूल को वह बचपन में बड़ी हसरत से देखा करता था। पापा इस स्कूल की फ़ीस भर पाने की स्थिति में होते तो वह भी इसमें पढ़ चुका होता। अब उसकी बेटी इसमें पढ़े तो यह उसके लिए आत्मीक संतोष का विषय होगा।
कोलकाता में इससे भी बेहतर स्कूल थे किन्तु उन्होंने सुविधाओं का ध्यान रखते हुए घर के क़रीब जो स्कूल था, उसी में दीपिका को पढ़ाया था। इस स्कूल से तो इंदौर का स्कूल काफ़ी बेहतर था। यह कहा जाये कि दोनों की कोई तुलना ही नहीं हो सकती थी। एडमीशन के एक दिन पहले ही दीपक दीपिका को स्कूल ले गया था। स्कूल का परिवेश देखकर दीपिका खुश हो गयी थी। उसने चहकते हुए कहा था-'हां डैडी। इसी में पढ़ूंगी। बहुत मज़ा आयेगा।'स्कूल बस उसे पहुंचाने व ले जाने आयेगी। अब तक वह कभी स्कूल बस में नहीं चढ़ी थी, जो उसकी काफ़ी दिनों से तमन्ना थी। मोहल्ले में जब कुछ दूर के स्कूलों में पढ़ने जाने के लिए बस में चढ़ते तो दीपिका का जी उसमें चढ़ने के लिए मचलने लगता था किन्तु उसे जाना पड़ता था बाई या मम्मी-डैडी के साथ पैदल ही क्योंकि वह घर के काफ़ी पास था।
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मां के लिए दीपिका अब दीपक ही थी। वह कठोर अनुशासन जिसने दीपक को एक क़ाबिल व्यक्ति बनाया था, वह देखते ही देखते दीपिका पर लागू हो गया। वह समय पर उठकर मुंह धोने, नहाने, समय पर होमवर्क करने, साफ़ सफ़ाई से खाना खाने तथा अन्य कार्यों को अंज़ाम देने को विवश थी। उसे करेले की सब्ज़ी खानी पड़ती थी इंदौर में। यहां कोलकाता जैसी आज़ादी उसके लिए ख्वाब थी। वहां तो मम्मी डैडी कई बार कहते तब वह बिस्तर छोड़ती थी। हर काम अपनी मर्ज़ी से अंज़ाम देती। ओढ़ना तो वह ख़ुद कभी नहीं लपेटती थी। छुट्टियों के दिन नहाना या देर से ाहाना उसका अपना मामला हुआ करता था। जब मन करते वह पढ़ाई छोड़कर ड्राइंग बनाती थी। यहां इसकी आज़ादी नहीं थी। ड्राइंग खेल के समय में ही बनायी जा सकती थी। फ़िल्म तो वह शायद ही कभी देख पूरी पायी हो। इंटरवेल से आगे कभी नहीं बढ़ पायी। दादी जी का फ़रमान होता-'दीपिका सो जाओ नौ बज गये हैं। दीपिका अब बहुत खेलना हो गया, अब होम वर्क करो। यह क्या खाते समय कैसी आवाज़ निकाल रही हो? दीपिका दूध के ऊपर की मलाई भी पी जाओ। आज़ पूरा टिफ़िन क्यों नहीं खाया? अरे यह क्या, टिफ़िन स्कूल से आते ही बैग से बाहर क्यों नहीं निकाला?
दीपिका कदम-कदम पर अनुशासन से आहत होती चली गयी। पांव बिन पोंछे चादर पर रखना घोर अनुशासनहीनता थी। ऐसे में वह मम्मी को बहुत मिस करती। उसे याद आता कि वह खाने के लिए कितना ना-नुकुर करती थी। यहां तक कि उसे ठीक से न खिलाने के लिए मम्मी पापा में झगड़ा हो जाता और दोनों इसके लिए एक दूजे को दोषी ठहराते-डैडी कहते-'तुम्हें तो बेटी को बहला-फुसला कर खिलाना तक नहीं आता।'
मम्मी का ज़वाब होता-'आप ही क्यों नहीं खिला देते? यूं ही जबानी प्यार नहीं होता। धैर्य रखना होता है। कुछ करना धरना भी होता है।'
दोनों उसके खाने-पीने, उसकी आदतों, शरारतों को लेकर चिन्तित रहते और आपसे में लड़ते। एक दूसरे पर बेटी की उपेक्षा का आरोप लगाते। इन सबमें दीपिका को अच्छा सा लगता। अपने प्रति उनक फ़िक्र उसे अच्छी लगती। यहां तो दादी उसे कभी गोद में नहीं लेतीं। कभी प्यार से पुचकारा नहीं। वहां वह अब भी मां की गोद में समाने का मौका निकाल ही लेती थी। दिन भर बात-बात पर मम्मी को चुम्मी देती-लेती रहती। हरी सब्ज़ियां कभी न खाती। आइसक्रीम, कोल्डड्रिंग, पाप कार्न, मंच उसके फ़ेवरेट थे। यहां बेस्वाद हार्लिक्स पीनी पड़ती थी दूध में। सुबह नौ बजे तक तो वह शायद ही कभी सो पायी। वहां छुट्टियों में नौ बजे तक सोना उसके लिए आम बात थी।
आज दीपिका का बर्थ डे था। सुबह ही डैडी-मम्मी का फ़ोन भी आया था। दादी भी आज सुबह उसके प्रति कुछ नर्म रुख अपनाये हुए थीं। जब वह स्कूल बस में चढ़ने जा रही थी उसकी मनपसंद खाने की चीज़ों के बारे में पूछा था।
दीपिका के पंख उग आये थे। हालांकि बस से वह उतरी तो उसे याद आया कि दादी ने चाकलेट तो दिये ही नहीं। इसके पहले उसके बर्थ डे के रोज़ मम्मी ने ढेर सारे चाकलेट दिये थे कि अपने फ्रेंड्स को दे देना। खैर... उसने ख़ुशी ख़ुशी अपने दोस्तों रोहित, अमित, सुलभा, पिंकी और गज़ाला को अपने घर शाम को यह कहकर इनवाइट किया था कि आज उसका बर्थ डे है। उसकी बर्थ को पार्टी होती है घर में। अपने सबसे प्यारी मैडम शिखा से भी उसने चहक कर पूछा था-'मैडम आप आयेंगी न मेरी बर्थ डे पार्टी में? 'जवाब में उन्होंने उसके गाल पर प्यारी सी थपकी दी थी। दीपिका ने सोचा, शाम को जब वे उसके घर आयेंगी तो उसे पप्पी भी दे सकती हैं। मैडम उसे अपनी मम्मी जैसी लगती हैं एकदम स्वीट।
शाम को जब दीपिका घर लौट रही थी तो उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसके फ्रैंड्स आयेंगे पहली बार उसके घर और शिखा मैडम भी। वह केक काटेगी। उसकी फेवलेट चीज़ें बनीं होंगी जिसे वह सबको खिलायेगी और खुद भी खायेगी। हर साल तो ऐसा ही होता है। यह बात अलग है वहां फ्रैंडस् की संख्या ज्यादा थी, यहां बहुत नहीं है। लेकिन यह क्या? घर लौटने पर तो कोई विशेष तैयारी नहीं दिखी। न घर में गुब्बारे बांधे जा रहे हैं न फूल। चादरें, तकिये के खोल सब पुराने और लगभग गंदे। लग ही नहीं रहा था कि गेस्ट के आने की कोई तैयारी की गयी हो। खाना-पीना भी अभी तक बनना शुरू नहीं हुआ है। दादी ने स्कूल से लौटने के बाद वही सब कुछ करने को कहा जो रोज कहती है। उसे होमवर्क भी रोज़ की तरह ही करने को कहा गया। वह कुछ बोल नहीं पा रही थी। पूछ नहीं पा रही थी पार्टी के बारे में। यह क्या? अब तो सबके आने का समय भी हुआ जा रहा है। इधर, दादीजी ने दादादी से कहा-'सुनिये जी। पास की दुकान से वह पांच रुपये वाला केक लेते आइए। आज दीपिका का बर्थ डे है। फिर मैं इसके लिए पनीर, छोले, पूरियां व सिवई बनाती हूं।'
सुनकर दीपिका का दिल धक्-धक् करने लगा। उसे मितली सी आने लगी..तो क्या पार्टी कैंसिल? बर्थ डे पार्टी नहीं होगी? उसे याद आया दादीजी ने तो इसका ज़िक्र ही नहीं किया कि पार्टी भी होगी। तो क्या दादीजी उसका बर्थ डे सेलिब्रेट नहीं करेंगी। गाड-गाड,मेरी हेल्प करना लीज़। कोई मेरा फ्रैड न आये। तभी कालबेल बजी और ये क्या, दादीजी
ने दरवाज़ा खोला खोला तो पाया कि उसके स्कूल के पांच फ्रैंड हाज़िर थे। वे सब ग्रुप बनाकर एक साथ आये थे और उनके हाथ में एक बड़ा सा गिफ्ट का पैकेट था, जिसे उन्होंने मिलजुल कर ख़रीदा था। दादीजी को कुछ देर लगी उनके आने का कारण समझने में तब तक उन्होंने उसे हैप्पी बर्थ डे कहा।
दादीजी ने उन सबको बैठाया और पूछा कि क्या वे दीपिका के साथ पढ़ते हैं?इस बीच दादाजी लौटे तो सबके लिए दादीजी ने चाकलेट मंगाई। वे सब लौट गये चाकलेट खाकर ही। दीपिका रुआंसी थी। यह क्या तरीक़ा हुआ। दादीजी ने तो उन्हें कुछ खिलाया-पिलाया ही नहीं। क्या इस तरह की जाती है बर्थ डे पार्टी?उसने अपना गिफ्ट पैकेट भी नहीं खोला था कि इस बीच शिखा मैडम पहुंच गयीं।
उन्हें देखकर दादीजी को हैरत हुई। मैडम को भी कुछ अज़ीब सा लगा। यहां तो पार्टी का कोई संकेत नज़र नहीं आ रहा था। वे अपने साथ एक ख़ूबसूरत डाल लायीं थीं, जो उन्होंने दीपिका को हैप्पी बर्थ डे कहते हुए दिया था। दादीजी ने उनके लिए चाय बनाया। नमकीन के साथ दिया। मैडम ने झिझकते हुए पूछा-'क्या आपके यहां कोई प्राब्लम हो गयी है?'
-'क्यों? नहीं तो।'
-'आपके गेस्ट वगैरह नहीं आये अब तक।'
-'क्यों?'
-'बर्थ डे पार्टी थी न आज दीपिका की?'
-'नहीं तो..।'
-सारी। शायद समझने में कोई भूल हो गयी। दीपिका ने कहा था कि उसका आज बर्थ डे है.. उसी के बुलाने पर मैं आयी।
दादीजी को अब समझ में आया पूरा माज़रा। दीपिका ने सबको दिया था बर्थ डे पार्टी का न्यौता। इधर दीपिका ज़ोर ज़ोर से रोने लगी। शिखा मैडम ने जब उसे चुप कराने की कोशिश की तो उसका दुःख और बढ़ गया। उसे चुप न
होते देख दादी ने उसे डांट दिया तो वह दूसरे कमरे में चली गयी। इधर, शिखा मैडम को बहुत अफ़सोस हुआ कि उसकी वज़ह से ही उसे मासूम बच्ची को उसके जन्म दिन के दिन डांट खानी पड़ी। वे सारी-सारी कहती हुई लौट गयीं। उन्होंने दादी से यह ज़रूर कहा-'प्लीज़, उसे मत डांटिये।'
इधर, दादी उनसे माफ़ी मांग रही थी-'देखिए बच्ची की वज़ह से हमें शर्मिंदा होना पड़ रहा है। हमें इसने एकदम नहीं बताया था कि उसने किसी को इनवाइट किया है। हमसे बोलती तो हम पूरी तैयार कर लेते। प्लीज़ थोड़ी देर रुख जाइये कुछ बना देते हैं खाकर ही जाइये।'
दीपिका देर रात तक रोती रही। उसे बुखार भी हो गया था।
----------------------------------------------------------इस बीच अमिता भी इंदौर आयी। उसे दीपिका में काफ़ी सुधार नज़र आया। वह लड़की जो उसकी कोई बात एक बार में न सुनती थी अब वह हर काम तत्परता से करने लगी थी। सुबह जल्द उठ जाती। उसका शरारतें भी काफ़ूर हो गयी थीं। खाने-पीने में नखरे भी नहीं बचे थे। पहले तो यह नहीं खाऊंगी, वह नहीं खाऊंगी करती रहती थी। दीपक को भी लगा आख़िर मेरी मां ने जो अनुशासन मुझे दिया उसकी नींव बेटी में भी डाल ही दी।
चर्चा होती रहती थी कि दो साल बाद दीपिका फिर लौटेगी कोलकाता। इस बीच दीपक ने मां-बाप से कई बार कहा कि वे रिटायरमेंट के बाद उनके साथ ही चलकर रहने की योजना बनायें। फिर दीपिका कितना ठीक हो गयी है वरना वह तो एकदम ज़िद्दी व शरारती हो गयी थी।
दो साल बाद जब दीपिका की सालाना परीक्षाएं समाप्त हो गयीं और उसके कोलकाता वापसी के दिन क़रीब आये दीपक व अमिता उसे लेने आये। उस दिन जैसे पुरानी दीपिका का फिर पुनर्जन्म हो गया था। वह नौ बजे सोकर उठी थी। दादीजी के कारण उसमें आये सुधार के दावे उसने दिन भर में बुरी तरह ध्वस्त कर दिये थे। वह नहाई ही नहीं। करेले की भुजिया खाने से स्पष्ट इनकार कर दिया। गंदे पैर बिना पांव पोंछे ही वह बिस्तर पर बार-बार चढ़ती उतरती रही। तेज़ आवाज़ में देर रात तक टीवी देखती रही। अख़बार व पत्रिकाओं से मनपसंद हीरो हिरोइनों की तस्वीरें काट ली। अपने व्यवहार से दीपिका ने दादीजी को जता दिया था कि वह जेल में थी, जिससे अब वह आज़ाद है। अब उसे यहां नहीं रहना है इसलिए उसे कोई भय नहीं। वह अपने मम्मी-पापा के पास जा रही है और वैसे ही रहेगी जैसे वह चाहती है। उसने अगले दो दिन तक भी शरारतें की और कुछ बढ़चढ़कर दादीजी को दिखाया।
दादीजी को उसके बदल रुख पर पहले तो हैरत हुई फिर क्रोध आया लेकिन जल्द ही वे अपराधबोध से ग्रस्त हो गयीं। उन्हें समझ में आ गया था कि दीपिका का कायाकल्प का उसका प्रयास दीपिका के लिए महज महज सज़ा थी। उसे ताड़ते देर न लगी कि बेटे-बहू की नज़र में वह गिर जायेगी। यह तो अच्छा हुआ कि उन्होंने कोलकाता जाने के प्रस्ताव को अभी स्वीकार नहीं किया है। शायद बेटा अब यह आग्रह कभी नहीं करेगा।
साभार-प्रगतिशील वसुधा